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सब आ जाता है। उसे ग्रहण कर।
तू स्थाप निजने मोक्षपंथे, ध्या अनुभव तेहने। आत्माको मोक्षपंथमें स्थापित कर दे। द्रव्यदृष्टि ग्रहण करके बस, उसीकी परिणति प्रगट कर। उसका अनुभव कर। दूसरेमें जो विहार करता है, (उसे छोडकर) चैतन्यमें विहार कर। एमां ज नित्य विहर, नहीं विहर परद्रव्यमें विहार करना छोडकर, स्वयंमें विहार कर। वही मोक्षका पंथ है। वह करनेका है।
उसके लिये भेदज्ञानका अभ्यास करना। क्षण-क्षणमें विभाव स्वभाव मेरा नहीं है, मेरा चैतन्य स्वभाव सो मैं हूँ, चैतन्य स्वभाव सो मैं, दूसरा कुछ मैं नहीं हूँ। चैतन्यका स्वभाव ज्ञायकतत्त्व सो मैं। बस, इस तरह परिणतिको दृढ करनी। ज्ञायकता, ज्ञायककतामें परिणतिको दृढ करनी। उसमेंसे शुद्ध निर्मल पर्यायें प्रगट होती है। उसकी प्रतीत, उसका ज्ञान, उसकी परिणति विशेष दृढता करनेसे उसमेंसे विशेष-विशेष सुख पर्याय प्रगट होती है। तो स्वानुभूति होती है। उसका अभ्यास करनेसे विकल्प टूटकर स्वानुभूति होती है। और वह स्वानुभूति बढते-बढते आत्मा .. पूर्ण ... उसका अभ्यास करनेसे, बारंबार उसमें विहार और लीनता करनेसे ... अनादिसे परकी कर्ताबुद्धि है। वह कर्ताबुद्धि छोडकर मैं ज्ञायक हूँ, परका मैं कर्ता नहीं हूँ। चैतन्यदेव, उसीका अभ्यास
समाधानः- ... दो तत्त्व भिन्न है। जड तो पर तत्त्व है। विभाव अपना स्वभाव नहीं है। और स्वभावका भेद करना। मैं चैतन्यस्वभाव हूँ और यह विभावस्वभाव है। उसका भेदज्ञान करके क्षण-क्षणमें ज्ञायकका अभ्यास करना। उसकी रुचि, उसकी महिमा, उसका ज्ञान, उसकी लीनता सब करना। बारंबार अभ्यास करना। उपाय तो एक है। उसके लिये वांचन, विचार, स्वाध्याय आदि उसके लिये है। एक चैतन्यतत्त्वको पहचानेनेकि लिये।
मुमुक्षुः- चैतन्यसत्ता तो त्रिकाली है और परिणति भी साथमें चालू है। अब इसीका भेदज्ञान करके परिणतिका झुकाव स्व ओर करना है। वही कार्य करना है तो करते हुए भी झुकाव अन्दर कैसे ढले?
समाधानः- वस्तु तो शाश्वत है। परिणति बाहर जाती है, उसकी दिशा पलट देना। स्वसन्मुख कर देना। पर सन्मुख जाती है, (उसे) स्वसन्मुख कर देना।
मुमुक्षुः- यह पुरुषार्थ भारी है।
समाधानः- भारी है। तो भी बारंबार करना, बारंबार करना। छूट जाय तो भी बारंबार करना।
मुमुक्षुः- मैं ज्ञायक हूँ।
समाधानः- मैं ज्ञायक हूँ। मैं निर्विकल्प तत्त्व ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ।