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मुमुक्षुः- जिसमेंसे ज्ञान परिणति बहती हो...
समाधानः- ज्ञान परिणति इसमेंसे आती है।
मुमुक्षुः- वह मैं हूँ।
समाधानः- हाँ। आनन्द परिणति उसमेंसे, ज्ञान परिणतिमेंसे सब उसमेंसे आती है। दिशा पलट दे, झुकाव पलट दे। पीछे तो अपना स्वभाव है। प्रथम भूमिका विकट है, फिर अपना पुरुषार्थ बारंबार अभ्यास करे तो सहज हो जाता है।
मुमुक्षुः- इसके लिये स्वाध्याय बहुत जरूरी है।
समाधानः- स्वाध्याय? जबतक नहीं होवे तबतक स्वाध्याय। दृष्टि आत्माको पहचाननेके लिये।
मुमुक्षुः- यह दृष्टिपूर्वक स्वाध्याय होवे तो कार्य जल्दी होवे।
समाधानः- हाँ, तो उसको मार्ग मिलता है। स्वाध्याय करे तो मार्ग मिलता है। गुरुदेवने जो मार्ग बताया, उस दृष्टिसे स्वाध्याय करना। तो स्वाध्याय करनेसे मार्ग मिलता है। लेकिन दृष्टि आत्मा पर रखना। बारंबार, बारंबार भेदज्ञानका अभ्यास करनेसे विकल्प टूटकर स्वानुभूति होती है।
मुमुक्षुः- इसी पुरुषार्थके लिये आपसे आशीर्वाद चाहते हैं।
समाधानः- गुरुदेवने कहा उस दृष्टिसे स्वाध्याय करना। गुरुदेवने जो मार्ग बताया, उस दृष्टिको ख्यालमें रखकर स्वाध्यायका अर्थ करना, शास्त्रका अर्थ (करना)। शास्त्रके अर्थको खोलना। गुरुदेवने खोला है उस दृष्टिसे उसका अर्थ खोलना।
मुमुक्षुः- हर समय निरंतर उपयोग तो वहीं जाना चाहिये कि मैं तो ज्ञायक हूँ। परिणति करे सो करने दो, मैं ज्ञायक हूँ। उस तरफका झुकाव..
समाधानः- मैं ज्ञायक हूँ। बारंबार उसका अभ्यास करना। ... गुरुदेवने कहा है, ज्ञायककी परिणति प्रगट करनी, करनेका वह एक ही है। ज्ञायक आत्माको भिन्न करके अंतरमें ज्ञायककी परिणति अन्दर ज्ञानमें लीनता करके स्वानुभूति प्रगट करनी। गुरुदेवने बताया है, वह करनेका है। सबने सुना है और गुरुदेवने मार्ग प्रगट किया है। आपने तो बरसों तक वही लढण किया है। अकेला शास्त्रका अभ्यास और गुुरुदेवने कहा वह सब दृढ किया है।
मुमुक्षुः- गुरुदेवकी कृपाकी बात है। समाधानः- गुरुदेवकी कृपा तो ... ग्रहण किया इसलिये ... एक तत्त्व दूसरे तत्त्वका... परद्रव्य है, कोई कहाँ किसीका है? गुरुदेवने बहुत कहा है। चैतन्यतत्त्व भी भिन्न और अन्दर यह शरीर भी परद्रव्य है तो दूसरा तो कहाँ अपना होगा?