Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 783 of 1906

 

अमृत वाणी (भाग-३)

३५० जाता है। यथार्थ ज्ञान हो तो यथार्थ दृष्टि (होती है)। जैसे यथार्थ दृष्टि हो उसके साथ यथार्थ ज्ञान होता है, वैसे स्वयं पक्का निर्णय करे तो उसके साथ यथार्थ दृष्टि प्रगट हुए बिना नहीं रहती। अपना अस्तित्व अपनेमेंसे ग्रहण करना चाहिये।

मुमुक्षुः- इसका प्रयोग करने बैठे तो प्रयोग हो सकता है?

समाधानः- वह स्वयं करे तो हो सकता है। मैं यह ज्ञायक ही हूँ, ज्ञायक ही हूँ। उसे स्वयं महिमापूर्वक (करे), शुष्कतापूर्वक ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, ऐसे नहीं, परन्तु अंतरसे उसे महिमापूर्वक ज्ञायकमें ही सबकुछ है। ज्ञायक ही महिमावंत है। उतनी महिमापूर्वक उसका ध्यान एकाग्रता हो तो उसे यथार्थ ज्ञायककी परिणति प्रगट होती है। मैं ज्ञायक हूँ, ऐसे शब्दरूप या शून्यतारूप या शुष्कतासे ज्ञायक यानी कुछ नहीं है, ऐसे नहीं। ज्ञायक भरपूर भरा हुआ एक तत्त्व, चैतन्य अदभुत तत्त्व है। ऐसी अदभुततापूर्वक और महिमापूर्वक यदि उसका ध्यान करे और एकाग्रता करे तो वह प्रगट होता है। उसकी महिमापूर्वक कि इस ज्ञायकमें सब भरा है, अदभुत तत्त्व है, ऐसा दृष्टिका जोर, ऐसा ज्ञानका निर्णय, ऐसा उसे अदभुततापूर्वक हो तो उसका ध्यान यथार्थ होता है। नहीं तो कितनोंको तो ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ ऐसी शून्यतारूप अथवा एक विकल्परूप हो जाता है तो ध्यान यथार्थ नहीं होता है। उसकी अदभुतता लगनी चाहिये। ज्ञायकमें सब है।

भगवानने जैसा स्वरूप प्रगट किया, भगवानका जैसा चैतन्यतत्त्व जिनेन्द्र देवका है ऐसा ही मेरा चैतन्य ज्ञायक है। ऐसी महिमासे भरा हुआ, वह एक विकल्प हुआ, परन्तु मैं चैतन्य अदभुत तत्त्व ही हूँ। ऐसी अंतरमेंसे स्वयंकी महिमा आनी चाहिये। तो ध्यान यथार्थ होता है। .. विचार करे, स्वाध्याय करे ऐसा सब करे, लेकिन उसका ध्यान कब जमता है? कि, उसमें अदभुतता लगे तो ध्यान जाता है।

समाधानः- .. भीतरमें स्वानुभूति नहीं हुयी तो सच्चा तो नहीं हुआ। पहले तो सम्यग्दर्शन प्रगट करे। सम्यग्दर्शन पूर्वक संयम होता है। भेदज्ञान करे, स्वानुभूति प्रगट करे, गृहस्थाश्रममें पहले सम्यग्दर्शनका प्रयत्न करना चाहिये। मैं आत्माको कैसे पहचानूँ? आत्मा भिन्न है, शरीर भिन्न है, विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। मैं चैतन्यद्रव्य हूँ। ऐसी श्रद्धा करना, ज्ञान करना, पहले तो ऐसा करना। और बादमें संयमकी पूजा होती है तो संयम आदरणीय है। पूजाके लिये तो कुछ होता नहीं।

मैं आत्मा आदरणीय हूँ। ऐसा .. सब आदरणीय है, ऐसा गुण आदरणीय है। उसके लिये करना, परन्तु पहले तो सम्यग्दर्शन प्रगट करना, बादमें संयम होता है। पूजाके लिये तो कुछ होता नहीं, आत्माके लिये सब होता है। पहले सम्यग्दर्शन होता है, बादमें संयम होता है। ऐसे तो बाहरसे त्याग कर दिया, अनन्त कालमें बहुत किया।