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आत्माके भीतरमें सच्ची स्वानुभूति नहीं हुयी। बाहर त्याग किया, संयम लिया तो देवलोकमें गया और परिभ्रमण तो ऐसे ही रहा। ऐसा तो बहुत किया।
यम नियम संयम आप कियो, पुनि त्याग विराग अथाग लह्यो, वनवास लियो मुख मौन रहा, दृढ आसन पद्म लगाय दियो। सब शास्त्रनके नय धारी हिये, मत मंडन खंडन भेद लिये, अब क्यों न विचारत है मनसे, कछु और रहा उन साधनसे। साधनमें कुछ और रह जाता है, भीतरमें स्वानुभूति रह जाती है। सब कुछ किया परन्तु स्वानुभूत नहीं प्रगट की। स्वानुभूति प्रगट करना, बादमें संयम होता है। संयम होता है। अपने स्वरूपमें लीनता, स्वरूपमें रमणता, उसके साथ शुभभाव होता है तो श्रावकके व्रत होते हैं, मुनिदशा आती है। मुनिको तो छठ्ठे-सातवेँमें अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें स्वानुभूति होती है, क्षण-क्षणमें स्वानुभूति होती है। ऐसी मुनिकी दशा होती है।
इसलिये पहले सम्यग्दर्शन करना। स्वाध्याय करके मैं आत्माको कैसे पहचानुं, ऐसा विचार करना। आत्माको पहचानना। साथमें स्वाध्याय (करे), लेकिन आत्माको पीछाननेका प्रयत्न करना।
मुमुक्षुः- विकल्प तो बहुत होते हैं, बहुत विकल्प होते हैं, अन्दर नहीं जाया जाता।
समाधानः- पुरुषार्थकी कमी है, पुरुषार्थकी कमी है। अंतर दृष्टि करे तो... पुरुषार्थ करना पडे न। पुरुषार्थ बिना कैसे होगा?
मुमुक्षुः- पुरुषार्थ कैसे करना?
समाधानः- पुरुषार्थ थोडा करे और कार्यकी (अपेक्षा रखे तो कैसे हो?)। कैसे? वह स्वयं करे तो होता है। किये बिना कुछ नहीं होता। एकत्वबुद्धि अनादिकी है, वैसा भेदज्ञान उसके सामने प्रगट करे तो होता है। पुरुषार्थ करे तो होता है।
मुमुक्षुः- पुरुषार्थ कैसा होता है? कैसे करना?
समाधानः- कैसा होता है क्या, वह स्वयं ही अन्दरसे खोज लेता है। जिसे जिज्ञासा हो, जिसे भूख लगी हो, वह खाना स्वयं ही खोज लेता है। वह रह नहीं सकता। वैसे जिसे अन्दरमें जिज्ञासा जागृत हो, आत्माके बिना रह नहीं सकता तो कैसे प्रगट करना (वह खोज लेता है)।
गुरुदेवने बहुत बताया है, शास्त्रमें बहुत आता है, तो स्वयं ही अन्दरसे खोज लेता है। जिसे भूख लगी हो, वह भूखा नहीं बैठा रहता। उसे कैसे तृप्ति हो, वह स्वयं ही अंतरमेंसे खोज लेता है। स्वयं ही खोज लेता है अंतरमेंसे। ... तृप्ति हुए बिना रहे नहीं, स्वयंको पुरुषार्थ करना पडता है।
मुमुक्षुः- ...