३७८ तो जो अपना ज्ञायक अस्तित्व ग्रहण किया सो किया है। उसे सहज धारारूप है। उसे सहज भेदज्ञानकी धारामें सहज ज्ञाताकी धारा वर्तती है। उसमेंसे उसे निर्विकल्प स्वानुभूतिकी दशा सहज परिणतिरूप होती है। और उसकी ज्ञायककी धारा ऐसे ही सहज (चलती है)। उसे विकल्पसे रटना नहीं पडता कि मैं यह ज्ञायक हूँ या आनन्द हूँ या परिपूर्ण हूँ, वह तो उसे ज्ञायककी धारा वेदनरूप उसकी अमुक दशा अनुसार परिणमता है, उसमें सहज रहता है। उसे रटन नहीं करना पडता।
मुमुक्षुः- उसकी संवेदनशक्तिमें ही वह सब ज्ञात होने लगता है अथवा वेदन होने लगता है।
समाधानः- हाँ, वेदन होने लगता है। स्वानुभूतिका आनन्द वह एक अलग बात है, परन्तु उसकी बीचवाली दशामें सविकल्पतामें भी उसे वेदनमें ज्ञायकका वेदन अमुक अंशमें रहता है।
समाधानः- .. उन्हें तो श्रुतकी लब्धि (थी)। श्रुतकेवली कोई दूसरी अपेक्षासे गुरुदेवको कहा था।
मुमुक्षुः- श्रुतका भाव..
समाधानः- श्रुतका भाव प्रगट हुआ। सम्यग्दर्शनपूर्वक उन्हें श्रुतकी विशेषता थी। उस अपेक्षासे। .. श्रुतकेवली वह तो उन्हें अमुक प्रकारका श्रुत...
समाधानः- .. गुरुदेवका जितना करें उतना कम ही है। भक्तोंको जो भाव आते हैं, वह गुरुदेवको कहते हैं। उन्हें श्रुतकी लब्धि कोई अपूर्व थी। भावसे श्रुतकेवली कहते हैं। भद्रबाहू श्रुतकेवली थे वह दूसरी अपेक्षा है। गुरुदेवमें तो कोई अतिशयतायुक्त श्रुतज्ञान था। तीर्थंकरका द्रव्य था तो उनका प्रभावना उदय अलग था, उनकी वाणी अतिशयतायुक्त थी, उनका आत्मा अलग था, सब अलग था। गुरुदेवको जितनी उपमा दें, उतनी कम ही हैं। भद्रबाहुस्वामी..
मुमुक्षुः- नौंवी गाथामें परिभाषा करते हैं, श्रुतसे जो आत्माको जाने...
समाधानः- उनकी श्रुतज्ञानकी धारा... हजारों जीवोंको .. किया।
मुमुक्षुः- .. उसकी परिभाषा करते समय कहा था कि, जो भावश्रुतज्ञानसे केवल आत्माका अनुभव करे वह श्रुतकेवली है। ऐसा ऋषिश्वरो तथा तीर्थंकरोंने घोषणा की है। और ऐसे प्रवचनसारकी ३३वीं गाथा। इससे यह सिद्ध होता है कि स्वानुभूति परिणत परम पूज्य गुरुदेव तथा पूज्य बहिनश्री, स्वयंके भावश्रुतज्ञानसे केवल आत्मानुभवयुक्त होनेसे हम मुमुक्षु समाजके महान उपकारी दोनों महात्मा श्रुतकेवली हैं। क्योंकि ऋषिश्वरोंनें उन्हें श्रुतकेवली कहा है।
मुमुक्षुः- सोगानीजीके बाद प्रवाह कुछ मन्द हो गया है, ऐसा लगता है। कालका