Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 815 of 1906

 

अमृत वाणी (भाग-३)

३८२ तो चाहिये न?

समाधानः- देव-गुरु-शास्त्र मार्ग दर्शाते हैं। गुरुदेव मार्ग दर्शाये कि वस्तु यह है, तू उसे पहचान। फिर करना स्वयंको है। उपादान पुरुषार्थ स्वयंको करना है। गुरुदेव मार्ग बताये, परन्तु मार्ग (स्वयंको) ग्रहण करना है। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा उसे साथमें होती है। परन्तु पुरुषार्थ स्वयंको करना पडता है। गुरुने क्या बताया है? गुरुने कैसा मार्ग बताया है? कि आत्मा सर्वसे भिन्न तू निर्विकल्प तत्त्व अनादिअनन्त है, ऐसा जो गुरुदेवने बताया, उसे ग्रहण स्वयंको करना पडता है।

अनादि कालका अनजाना मार्ग गुरुदेवने स्पष्ट करके बताया है। वह स्वयं ग्रहण करना है। इसलिये उसमें गुरुका अवलम्बन आ जाता है कि गुरुने जो मार्ग बताया वह यथार्थ है। परन्तु मुझे कैसे समझमें आये, ऐसे पुरुषार्थ करके स्वयं स्वयंसे जानता है। अनादि कालका अनजाना मार्ग है। अनादि कालसे या तो जिनेन्द्र देवका वाक्य या कोई गुरुका वाक्य साक्षात उसे श्रवण हो, तब उसे अंतरमें उपादान जागृत हो और देशनालब्धि प्रगट हो, ऐसा उपादान-निमित्तका सम्बन्ध है, लेकिन वह ग्रहण स्वयंसे होता है, कोई उसे कर नहीं देता, स्वयंसे होता है। उपादान-निमित्तका ऐसा सम्बन्ध है। परन्तु कोई कर नहीं देता, स्वयंके द्वारा होता है, उसमें निमित्त साथमें होता है। अभी यह मार्ग गुरुदेवके प्रतापसे, गुरुदेवने मार्ग बताया और यह मार्ग बहुत लोगोंको अंतरमें जिज्ञासावृत्ति, महिमा गुरुदेवके प्रतापसे हुआ है।

मुमुक्षुः- यह बात ही कहाँ थी।

समाधानः- बात ही कहाँ थी। ऐसा प्रकार है, उपादान-निमित्तका ऐसा स्वभाव है। साक्षात वाणी श्रवण होती है, अनादि काल हुआ। शास्त्रमें कहा है, लेकिन चैतन्य साक्षात गुरु एवं देव मिले, तब अंतर उपादान-निमित्तका सम्बन्ध होता है। कोई शास्त्रमेंसे स्वयं जाने कि शास्त्रमें... इसमें आता है न? गुरुने उसका रहस्य बताया है।

मुमुक्षुः- .. इसी प्रक्रियाका अभ्यास जैसे विशेष-विशेष गहराईसे हो, वैसा उसे सहजरूपसे..

समाधानः- अंतरमें अभ्यास करे, मैं स्वयं ज्ञायक हूँ। यह सब भाव दिखते हैं, वह मैं नहीं हूँ। मैं स्वयं ज्ञायक सबसे भिन्न तत्त्व, निराला तत्त्व हूँ, इस तरह बारंबार उसका अभ्यास करे, बारंबार अंतरसे अभ्यास करे। अपने अस्तित्वको (ग्रहण करे)। उसे शून्यतारूप मात्र नहीं, परन्तु महिमासे (ग्रहण करे)। मैं अनादिअनन्त सिर्फ निर्मूल्य तत्त्व हूँ, ऐसे नहीं। अनन्त शक्तिसे भरपूर ऐसी चैतन्यशक्ति, चैतन्य अस्तित्व सो मैं हूँ, ऐसे उसे महिमा आती है। परपदार्थकी महिमा छूट जाती है। इस प्रकार वह महिमापूर्वक अभ्यास करता है तो आगे बढता है। विकल्प छूटकर मैं शून्य हो जाता हूँ, ऐसे नहीं।