३८४ केवलज्ञान (नहीं हो जाता), तब तक रहा करती है। उसे भेदज्ञानकी धारा सम्यग्दर्शनमें अमुक प्रकारसे (होती है), बादमें आशिंक स्वरूप लीनता बढती जाय, वैसे-वैसे उसकी उग्रता बढती जाती है।
मुमुक्षुः- अर्थात स्वरूपका अहम भाव बढता जाय और रागादि अथवा विकल्पादिकी उपेक्षा उसे सहजपने रहे, ऐसी उसकी स्थिति (होती है)?
समाधानः- ज्ञायक ओरकी परिणतिकी दृढता, मैं ज्ञायक हूँ और यह भेदज्ञानकी उग्रता बढती जाती है। स्वरूप लीनताकी विशेषता और अस्थिरताकी अल्पता होती जाती है। मैं यह चैतन्य हूँ, अहम भाव यानी मैं यह चैतन्य हूँ, चैतन्यकी विशेष परिणति, चैतन्य ओरकी (उग्र होती है और) विभाव ओरकी परिणति अल्प होती जाती है। भेदज्ञानकी धारा (चलती है)। उसे स्वानुभूति भी मुनिदशामें अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें बढती जाती है। ऐसा करते-करते जब वह श्रेणि लगाता है, तब केवलज्ञान प्राप्त होता है। तब तो अबुद्धिपूर्वक हो जाता है।
मुमुक्षुः- अस्तित्वकी खुमरी बहुत आ जाती होगी कि अब मैं किसी भी वस्तुके बिना रह सकूँ ऐसा पदार्थ हूँ। ऐसे भावका वेदन तो उसे होता होगा?
समाधानः- जहाँ तत्त्वकी दृष्टि हुयी, वहाँ किसी भावके बिना टिक सके, स्वतःसिद्ध वस्तु कोई पदार्थके बिना मैं टिकनेवाला हूँ, जहाँ उसे द्रव्यकी प्रतीत होती है, उस प्रतीतमें तो पूरा बल साथमें आता है। प्रतीत तो उसे दृढ ही है। कोई पदार्थके आश्रयसे मैं टिकूँ ऐसा तत्त्व नहीं हूँ, मैं स्वयं टिकनेवाला, स्वयं वस्तु ही हूँ। ऐसी प्रतीत तो उसे प्रथम सम्यग्दर्शनमें आ जाती है। बादमें तो उसे लीनता बढती जाती है, स्वरूपका वेदन बढता जाता है। स्वानुभूति बढती जाती है और बीचमें सविकल्प दशामें उसे आंशिक ज्ञायककी धारा, लीनता, शान्तिका वेदन वह सब बढता जाता है।
अपना अस्तित्व, मैं स्वयं टिकनेवाला हूँ, यह तो उसे प्रतीतमें आ गया है। परन्तु स्वरूपमें ही रहूँ, बाहर नहीं जाऊँ। स्वरूपमें ही आनन्द, स्वरूपमें ही शान्ति, स्वरूपसे बाहर जाना उसे मुश्किल लगे, ऐसी उसकी दशा बढती जाती है। अल्प अस्थिरताके कारण जाता है, परन्तु उसकी उग्रता होती जाती है। भेदज्ञानकी धारा, द्रव्यकी प्रतीतिका बल बढता जाता है। लीनता विशेष बढती जाती है।
मुमुक्षुः- निज स्वभावकी ओर मुडता हो उस प्रकारकी खटक कहनेका वहाँ आशय है?
समाधानः- स्वाध्याय, मनन, चिंतवन आदि सबका हेतु क्या है? मुझे आत्माका स्वरूप प्रगट करना है, मुझे आत्माको पहचानना है। स्वाध्यायके खातिर स्वाध्याय या मनन, चिंतवन नहीं, परन्तु इसका हेतु क्या है? ध्येय एक चैतन्य ओरका है। मुझे चैतन्य स्वभाव प्रगट करना है। सिर्फ एक शुभभावके लिये स्वाध्याय, मनन नहीं, परन्तु