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इसका हेतु मुझे चैतन्य कैसे प्राप्त हो, ऐसी खटक होनी चाहिये। मेरा स्वभाव कैसे पहचानूँ, मुझे भेदज्ञान कैसे प्रगट हो? मेरे चैतन्यद्रव्यका अस्तित्व, मैं चैतन्य हूँ, यह मुझे कैसे ग्रहण हो? ऐसी खटक होनी चाहिये।
मुमुक्षुः- .. वह भाव प्रत्येक जीवोंको, प्रति समय उसकी दशामें होता है?
समाधानः- वह अनुभूति अर्थात स्वानुभूतिकी अपेक्षा नहीं है। वह तो आबालगोपालको स्वयंका वेदन हो रहा है अर्थात वह ज्ञानस्वभाव स्वयं उसे अनुभवमें आ रहा है। वह जाने तो चैतन्यद्रव्य स्वयं अपने ज्ञानस्वभावसे पहचानमें आये उस प्रकारसे अनुभवमें आ रहा है। क्योंकि वह जाननेवाला द्रव्य है। वह जाननेवाला द्रव्य ज्ञात हो रहा है, स्वयं देखे तो। यथार्थरूपसे ज्ञात हो रहा है, ऐसे नहीं, परन्तु उसका जाननस्वभाव सबको अनुभवमें आ सके ऐसा है, अनुभवमें आ रहा है। जडता अनुभवमें नहीं आती। जडतारूप आत्मा नहीं है, परन्तु चैतन्यरूप जाननेवाला सबको ज्ञात हो रहा है कि यह विकल्प है, यह पर है, यह यह है, यह है, ऐसा विचार करे तो जाननेवाला अनुभूतिमें सबको आ रहा है, परन्तु स्वयं लक्ष्य देकर यथार्थतया जानता नहीं है।
स्वयं अपने स्वभावमें ज्ञानरूपसे अनुभवमें आ रहा है। विशेष स्वभाव है ज्ञायक जाननस्वरूप। ... सबको उसकी चैतन्यता अनुभवमें आ रही है। जाननतत्त्व है वह अनुभवमें आये ऐसा है। आबालगोपाल सबको अनुभवमें आ रहा है। यथार्थपने नहीं, परन्तु उसके स्वभावरूपसे अनुभवमें आ रहा है। जैसे यह जड वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आदि जिसमें जडता दिखती है, वैसे उसमें चैतन्यता दिखती है।
मुमुक्षुः- चैतन्यता इतनी स्पष्ट है कि उसे पहचाननी हो तो पहचानी जाय इतनी स्पष्ट है।
समाधानः- पहचानी जाय ऐसी चैतन्यता स्पष्टरूपसे है। स्वयं पहचानता नहीं है। ऐसी चैतन्यता स्पष्ट है।
मुमुक्षुः- .. उसके लिये पुरुषार्थ क्या करना? पहचाननेके लिये पुरुषार्थ कैसे करना? क्या करना?
समाधानः- बारंबार विचार करना, उस प्रकारका स्वाध्याय, मनन करना। अंतरमें जिज्ञासा करनी, महिमा करनी कि आत्मा कैसा अपूर्व होगा? मुझे कैसे प्रगट हो? विभावकी महिमा गौण करके स्वभावकी महिमा प्रगट करनी। मैं चैतन्य हूँ, ऐसा अभ्यास बारंबार करना। चैतन्यस्वभावका आता है न? समता, रमता, ऊर्ध्वता, ज्ञायकता, सुखभास, वेदकता, चैतन्यता ये सब जीवविलास। ऐसे चैतन्य सबको ख्यालमें आ सके ऐसा है। ज्ञायकता, सुखभास। ज्ञायकता है, समता, रमता-रम्य स्वभाव है, वेदकता-वेदनमें आता