समाधानः- शास्त्रमें ही अटक जाय और आत्माकी स्वानुभूति न करे, उस अपेक्षासे। बाकी अधूरापन हो उसे बीचमें श्रुतका चिंतवन, शास्त्र अभ्यास आदि सब होता है। परन्तु शास्त्रमें ही अटक जाय और स्वानुभूति न करे और उसीमें अटक जाय तो उस अपेक्षासे उसे .. कहनेमें आता है। उसका हेतु जो स्वानुभूतिका था वह उसने नहीं किया तो फिर शास्त्रका प्रयोजन उसने सिद्ध नहीं किया।
प्रयोजनभूत आत्माको साध लिया, स्वानुभूति प्राप्त करनी, यह शास्त्र स्वाध्यायका हेतु है। पद्मनन्दी आचार्यदेवने कहा है, व्यभिचारीणी बुद्धि बाहर घुमती है। अंतरमें न जाय तो वह किस कामका है? लेकिन कहीं और अटकता हो, उसके बदले शास्त्रका अभ्यास मुमुक्षुओंको होता है। क्योंकि उसे दूसरा आधार नहीं है, वहाँ श्रुतका चिंतवन (होता है)। लेकिन ध्यये नहीं चुकना चाहिये। गुरुदेव भी श्रुतका चिंतवन (करते थे)। उनका श्रुत कोई अपूर्व था। परन्तु गुरुदेव कहते थे कि स्वानुभूति मुख्य है।
मुमुक्षुः- ज्ञानीके आश्रयमें शास्त्र पढने चाहिये, नहीं तो गम पडे बिना आगम अनर्थकारक हो जाय, ऐसा नहीं बन सकता?
समाधानः- ज्ञानीने जो अर्थ किया हो, उस अर्थको स्वयं ग्रहण करे। और फिर जो ज्ञानीने अर्थ किया हो उस अनुसार अर्थ करे तो उसमें दिक्कत नहीं है। लेकिन अपनी मति कल्पनासे अर्थ करे तो उसे नुकसानका कारण होता है। अपनी बुद्धि अनुसार करे तो। ज्ञानीने क्या अर्थ किया है, उसका वह मिलान करके करे तो वह यथार्थ मार्गको प्राप्त करे।
मुमुक्षुः- सामान्य मनुष्यको तो क्षयोपशमका अभिमान सहज हो जाता है। ज्ञानीको क्यों नहीं होता? क्षयोपशमका थोडा उघाड हो तो सहज ही अभिमान हो जाता है।
समाधानः- सच्चा यथार्थ मुमुक्षु हो तो उसे भी नहीं होता। क्षयोपशम मात्र वह कोई साधनाका कारण नहीं बनता। साधना तो अन्दर स्वयं द्रव्य पर दृष्टि करके उसका ज्ञान करे, उसमें लीनता करे तो साधना होती है। क्षयोपशम मात्र वह साधना (नहीं है)। क्षयोपशम मात्र नहीं, वह तो एक सच्चा ज्ञान करनेका कारण बनता है। वह कोई आत्माकी साधना करनेका कारण नहीं बनता। इसलिये यथार्थ मार्गसे जिसे स्वानुभव प्रगट हुआ, उसे कोई अभिमान होनेका कारण नहीं बनता।
बारह अंग और चौदह पूर्वकी लब्धि मुनिओंको प्रगट होती है। तो भी भगवानको कहते हैं, हे भगवान! मैं तो अल्प मात्र हूँ। मैं आपकी वाणीको पहुँच नही सकता हूँ। ऐसा कहते हैं। स्वानुभूतिमें क्षण-क्षणमें जाते हैं, ऐसे मुनिओंको भी देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा आती है। कोई ऐसे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव न हो कि जहाँ ज्ञानिओं विराजते न हो। जहाँ देव-गुरु-शास्त्र न हो, ऐसा किसीको न हो। जिसे आत्माकी साधना करनी