३९४ है, उसे देव-गुरु-शास्त्रका इतना आदर होता है।
अनन्त कालमें इस जीवको थोडा जाने तो (लगता है कि) मैंने बहुत जाना, मुझे बहुत आता है। इस तरह मुमुक्षुदशामें अटकनेके अनेक प्रसंग बनते हैं। अतः कहीं अटकना नहीं। एक आत्मार्थका प्रयोजन रखना, एक आत्मार्थताको मुख्य रखना। जो ज्ञानिओंने कहा है, जो महापुरुषोंने कहा है उस मार्ग पर चल। भेदज्ञानकी दशा, जो स्वानुभूतिकी दशा किस मार्गसे प्रगट हो, उसका लक्ष्य रखना। वह मार्ग कौन-सा है? ज्ञाताकी धारा, स्वानुभूतिकी दशा कैसे प्रगट हो? इस लक्ष्यसे चलना है। चलेगा तो कहीं नहीं अटकेगा।
मुमुक्षुः- हमें तो यहाँ सोनगढमें सुनने मिली। नहीं तो दिगंबर तत्त्वमें भी हमने ऐसी बात तो नहीं सुनी।
समाधानः- शास्त्रके अर्थ ही कौन सूलझा सकता था? गुरुदेवने सब अर्थ किये, गुरुदेवकी वाणीसे सब जागृत हो गये। समयसारके अर्थ कौन सुलझा सकता था? प्रवचनसार और दूसरे अध्यात्म शास्त्र, सब शास्त्रके अर्थ कोई सूलझा नहीं सकता था। गुरुदेवने ही सब अर्थ किये। भेदज्ञानकी दशा, ज्ञाताधारा, कर्ताबुद्धि छोड, सब अर्थ गुरुदेवने ही सुलझाये हैं। वस्तुका मूल रहस्य उन्होंने ही बताया है। कोई समझता नहीं था। अमुक संप्रदायमें सब क्रियामें पडे थे। क्रियासे धर्म होता है, इतना कर लें तो धर्म होगा, इतना शुभभाव करें तो ऐसा होगा, इतना करुँगा तो पुण्य बन्धेगा। इतनी सामायिक कर लें और इतने प्रतिक्रमण करें, उसीमें सब पडे थे।
गुरुदेवने (प्रकाशित किया कि), अंतरमें मार्ग है, भेदज्ञानकी ऐसी दशा प्रगट होती है, यह कर्ताबुद्धि तोड, ज्ञाताधार प्रगट कर, स्वानुभूति अंतरमें होती है। मन-वचन- कायासे सबसे अतीत, विकल्पसे अतीत, निर्विकल्प दशाकी प्राप्ति हो, स्वानुभूति प्रगट हो और वह बढते-बढते मुनिदशा आये तो अंतरमें क्षण-क्षणमें झुलते हो। मुनिकी दशा, केवलज्ञानकी दशा सब गुरुदेवने बताया। भगवान कैसे होते हैं? गुरु कैसे होते हैं? शास्त्र कैसे होते हैं? सब गुरुदेवने बताया। कोई नहीं जानता था, इतने साल पहले। अब सब जानने लगे हैं। स्थानकवासी और देरावासीमें सामायिक कर लो, प्रतिक्रमण कर लो, उपवास कर लो, उसमें धर्म मानते थे। दिगम्बरमें इतनी शुद्ध और इतनी अशुद्धि, उसमें सब अटक गये थे। अंतरमें मार्ग है, गुरुदेवने इतना प्रचार किया, सबको जागृत किये हैं।
मुमुक्षुः- छठ्ठे-सातवें गुणस्थानमें विचरते महामुनिको शास्त्र लिखनेका भाव कैसे आता है? आत्माके आनन्दमें झुलते हो एकदम।
समाधानः- आत्माके आनन्दमें क्षण-क्षणमें झुलते हैं, परन्तु बाहर आते हैं। क्योंकि