मनन, शास्त्र अभ्यास, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा और चैतन्यका चिंतवन करना। ज्ञायक हूँ, मैं जाननेवाला ज्ञायक हूँ। जो विकल्प आता है, उसको मैं जाननेवाला चैतन्य हूँ। मैं ज्ञायक हूँ। ऐसा बारंबार (प्रयास करना)। उसकी रुचि, महिमा करना
जन्म-मरण टालनेका वह उपाय है। संसारमें जन्म-मरण तो चलते ही रहते हैं। आना-जाना ऐसा बहुत किया, शाश्वत एक आत्मा है। शरीरका स्वभाव शरीरमें है। ऐसे बहुत जन्म-मरण किये। बहुत माताको छोडकर आया, अपने छोडकर गया। ऐसा बहुत हुआ। अपने चैतन्यतत्त्वको पहचाना नहीं। अंतर दृष्टि करके चैतन्यकी स्वानुभूति करना वह मुक्तिका मार्ग है। इसका अभ्यास करना, बारंबार भेदज्ञान करना।
मुमुक्षुः- माताजी! एक प्रश्न है। ... लेकिन पुदगलका परिणमन अन्दरमें बैठता नहीं है। कभी तो बैठ जायेगा, कभी-कभी। कभी समझमें ही नहीं आता है।
समाधानः- समझनेका अभ्यास करना। यह जड पुदगल है, मैं जाननेवाला हूँ। यह स्वतंत्र है। शरीरका स्वभाव स्वतंत्र है। विकल्प अपना स्वभाव नहीं है। मैं चैतन्य ज्ञायक स्वभाव हूँ। शान्ति, आनन्द आत्मामें है। ऐसे बारंबार उसका विचार करना। बैठता न हो तो बिठानेका अभ्यास करना। बारंबार विचार करना। स्वभाव दृष्टिको पहचानकर उसका अभ्यास करना।
जैसा स्फटिक निर्मल है, वैसा मैं निर्मल हूँ। पानीका स्वभाव निर्मल है, वैसा निर्मल हूँ। मलिनता पानीमें बाहरसे आती है, कीचडके कारण। पानीका स्वभाव निर्मल है, वैसे मैं निर्मल हूँ। संकल्प-विकल्प विभाव है, अपना स्वभाव नहीं है। उसका भेदज्ञान करना।
मुमुक्षुः- दिनभरकी क्रियाएँ, जैसे खाने बैठे, घरका कोई काम करते हैं तो उपयोग तो ऊधर लग जाता है, तो फिर उस वक्त ज्ञायक हूँ, कैसे लक्ष्य रहे? यह मेरा बहुत दिनसे प्रश्न है।
समाधानः- उपयोग लग जाता है (उसमें) अपने पुरुषार्थकी मन्दता है। उपयोग लग जाय तो भी श्रद्धा तो, मैं ज्ञायक हूँ, ऐसी रुचि रखना।
मुमुक्षुः- अन्दरसे क्या रटते रहे मन ही मनमें? हम उसको रटे? रटते जाएँ कि मैं ज्ञायक हूँ, मैं ज्ञायक हूँ, ऐसे हम घोंटे क्या उसको?
समाधानः- उसका अभ्यास करना। घोंटना तो रटन जैसा हो जाता है। लेकिन उसको पहले पहचानना, सच्ची समझन करना कि मैं चैतन्य हूँ। उसका स्वभाव जब तक यथार्थ जाननेमें नहीं आवे तबतक उसे घोंटना, पढना, उसका अभ्या करना, रटन करना। जब तक यथार्थ नहीं होवे तबतक रटना, पढना ऐसा करना।
परन्तु जिसको यथार्थ होता है उसको तो सहज हो जाता है, उसको रटना नहीं