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उसमें आश्रय द्रव्यका है। द्रव्यके आश्रयसे वह परिणमती है। ऊपरसे नहीं आती है। द्रव्यके खजानेमें वह भरा है, उसमेंसे वह आती है।
मुमुक्षुः- उस अपेक्षासे द्रव्य ही कर्ता है, द्रव्य ही करण है, ऐसा जो कहनेमें आता है वह भी यथार्थ है।
समाधानः- हाँ, वह यथार्थ है। द्रव्यके खजानेमें ही वह सब भरा है। अनन्त- अनन्त शक्तियाँ अनन्त काल पर्यंत परिणमे, वह द्रव्यकी शक्तिमें सब भरा है। उसमेंसे पर्याय परिणमती है। लेकिन पर्यायका फेरफार (नहीं कर सकता है)। उनके जैसे स्वभाव हैं कि, ज्ञानका ज्ञान, दर्शनका दर्शन, चारित्रका चारित्र, उसके अविभाग प्रतिच्छेद, उसकी हानि-वृद्धि, उसकी तारतम्यता वह सब स्वतंत्र पर्याय परिणमती है। उसमें कोई फेरफार नहीं कर सकता। लेकिन जो प्रगट होता है वह द्रव्यमेंसे प्रगट होता है। द्रव्यके बाहरसे नहीं प्रगट होता। उसे द्रव्यका आश्रय है। इसलिये वह द्रव्यदृष्टिके बलसे, लीनताके बलसे, सम्यग्दर्शनके बलसे निर्मल पर्यायें प्रगट होने लगती है।
जबतक दृष्टि बाहर थी, तबतक विभाव पर्याय परिणमती थी। दृष्टि अपनेमें गयी इसलिये स्वभाव पर्यायें परिणमने लगी। जो अपने स्वभावमें भरी है, वह सब पर्यायें प्रगट होने लगी। वीतराग दशा होती है, वहाँ केवलज्ञान आदि प्रगट होता है। वह स्वयं प्रगट होता है, परन्तु उसे आश्रय (द्रव्यका है)। द्रव्यमें केवलज्ञानकी शक्ति है, उसमेंसे वह प्रगट होता है। द्रव्यमें शक्ति है, ज्ञानगुणमें शक्ति है। वह सब गुण द्रव्यमें ही अभेदरूप रहे हैं। एक-एक गुण भले है स्वतंत्र, परन्तु द्रव्यमें अभेदरूपसे रहे हैं। उसमेंसे पर्याय प्रगट होती है। इसीलिये उसे उसका वेदन होता है। पर्याय भिन्न, गुण भिन्न और उसका वेदन भिन्न (ऐसा नहीं है)। गुण अपेक्षासे, पर्याय अपेक्षासे, संज्ञा अपेक्षासे भेद है। परन्तु वह सब शक्तियाँ द्रव्यमें है, द्रव्यमेंसे वह पर्यायें प्रगट होती है। अतः वास्तविक रीतसे द्रव्यमेंसे (प्रगट होती है), इसलिये द्रव्य उसका कर्ता, करण, संप्रदान द्रव्य है। परन्तु स्वतंत्र पर्याय परिणमती है। वह परिणमित होकर जो बाहर आती है, वह स्वयं स्वतंत्र परिणमती है। इसलिये वह स्वयं कर्ता, करण इस तरह पर्यायको स्वतंत्र लागू पडती है। कैसी निर्मलता, कैसे अविभाग प्रतिच्छेद, कैसी तारतम्यात, इस तरह स्वतंत्र है।