४१८ है कि यह पर्याय इस द्रव्यकी है और यह पर्याय इस गुणकी है। (पर्याय) अपने षटकारकसे परिणमति है, वह वास्तवमें वस्तुस्वरूप है या प्रयोजनकी सिद्धिके लिये कहनेमें आता है?
समाधानः- वह ज्ञानमें जाने कि इस गुणकी यह पर्याय है और इस गुणकी यह पर्याय है, ऐसा जाने। परन्तु वास्तवमें वह पर्यायका करण और पर्याय कर्ता, पर्याय संप्रदान, पर्याय अपादान वह यथार्थमें तो द्रव्यमें लागू पडता है। पर्याय स्वतंत्र (है)। पर्यायको गुणका आश्रय है और पर्यायको द्रव्यका आश्रय है। स्वयं द्रव्यदृष्टि करके मैं शुद्धिरूप पुरुषार्थ करके उसका परिणमन करुँ, कैसे स्थिरताकी निर्मलता वृद्धिगत करुँ, कैसे स्वानुभूतिकी ओर जाऊँ, इस तरह अपनी पर्यायकी निर्मलता प्रगट करनेकी भावना रहती है।
यदि वैसे पर्याय स्वतंत्र हो जाय, पुरुषार्थका उसे आधार न हो और वह स्वतंत्र हो जाय तो उसकी भावना कैसे रहे कि मैं यह पुरुषार्थ करुँ? पर्यायकी निर्मलता (कैसे प्रगट करुँ)? केवलज्ञान कैसे प्रगट हो? उसमें पुरुषार्थ तो स्वयंको करनेका ही है। पर्याय स्वतंत्र परिणमे तो भी पुरुषार्थ तो स्वयंको करनेका है। स्वतंत्र है भी और स्वतंत्र नहीं भी है। उसको पुरुषार्थका आश्रय रहता है, द्रव्यका आश्रय रहता है। द्रव्यके आश्रय बिना वह पर्याय ऊपर-ऊपर नहीं होती। उसे आश्रय तो द्रव्यका है।
स्वयंकी द्रव्यदृष्टि है, उस द्रव्यदृष्टिका बल बढने पर वह पर्याय स्वतंत्र, परिणमती है स्वयं, परन्तु द्रव्यदृष्टिके बलसे परिणमती है। द्रव्यके आश्रय बिना तो प्रगट नहीं होती है। उसे आश्रय तो द्रव्य और गुणके आश्रयसे पर्याय प्रगट होती है। प्रगट होती है इसलिये उसे प्रगट की, (ऐसा कहते हैं)। पर्याय एक स्वतंत्र वस्तु है, और वह अपनेसे परिणमती है। परन्तु उसकी शक्तियाँ जो हैं पर्यायरूप परिणमनेकी वह द्रव्यमें और गुणोंमें भरी है। उसमेंसे वह प्रगट होती है, अवस्थाएँ प्रगट होती है। अन्दर खजाना भरा है, द्रव्य और गुणोंमें है, उसमेंसे वह प्रगट होती है। अतः उसे आश्रय तो द्रव्यका है। इसलिये मूल वस्तु गुण और द्रव्य, उसमेंसे वह परिणमती है।
स्वयं कर्ता, स्वयं करण... स्वयं उसमें स्वभावसे कुछ दूसरा नहीं कर सकता है या उसमें कोई फेरफार नहीं कर सकता है। उसका जो पर्यायका स्वभाव है, उस प्रकारसे वह परिणमती है। उसकी हानि-वृद्धि, उसका तारतम्यता वह कैसी, उसमें स्वतंत्र है। उसमें कोई फेरफार नहीं कर सकता। उसके पुरुषार्थको द्रव्यदृष्टिके बलसे उसमें जो स्वभाव हो उस रूप परिणमती है। उसमें वह फेरफार नहीं कर सकता है। इसलिये वह स्वतंत्र है। कर्ता, करण, संप्रदान, अपादान। इस तरह उसका जो स्वभाव है, ज्ञानका ज्ञानरूप, दर्शनका दर्शनरूप, चारित्रका चारित्ररूप उसमें वह फेरफार नहीं कर सकता। उसकी हानि, उसकी वृद्धि, उसके अविभाग प्रतिच्छेद, वह सब कैसे परिणमे, वह स्वतंत्र है। लेकिन