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साथमें होता है। व्यवहारका निषेध... दृष्टि वैसा निषेध करे, परन्तु व्यवहारका निषेध ऐसा नहीं होना चाहिये कि पर्याय आत्मामें सर्वथा है ही नहीं।
पर्याय न हो तो वेदन किसका? मोक्षमार्ग किसका? साधक दशा कैसी? सब कैसा? आगे बढना क्या? कुछ भी नहीं रहता। मुनि चारित्रमें आगे बढते हैं। वीतरागदशा प्रगट करते हैं। कब वीतरागता हो? कब हो? गृहस्थाश्रममें सम्यग्दृष्टि ऐसी भावना भाते हैं। इसी क्षण वीतरागता होती हो तो यह कुछ (नहीं चाहिये)। दृष्टिके जोरमें ऐसा नहीं कहते हैं कि दृष्टिके जोरमें वह सब आ गया। वह तो होगा, जब होना होगा। ऐसा नहीं कहते। कब ऐसी पर्यायकी शुद्धि होगी? कब ऐसा पुरुषार्थ होगा? कब ऐसी पर्याय प्रगट होगी? ऐसी शुद्ध निर्मल पर्यायें कब प्रगट होगी? ऐसी पुरुषार्थकी धारा मुझे कब शुरू होगी? ऐसी पुरुषार्थकी भी भावना भाते हैं। द्रव्यदृष्टि प्रगट हो गयी, अब क्या पुरुषार्थ (करना)? द्रव्यदृष्टिमें पुरुषार्थ आ गया। वह तो एक द्रवयदृष्टिकी बात है। परन्तु पुरुषार्थकी भावना भी साथमें ऐसी रहती है। कब वीतरागता होगी? कब यह सब छूट जाये? कब मैं मेरे आत्माकी स्वानुभूतिमें लीन हो जाऊँ? बाहर नहीं आऊँ, ऐसा दिवस मुझे कब आयेगा? ऐसी भावना भाते हैं। क्षण-क्षणमें ऐसी भावना उसे बहुत बार आ जाती है। सर्वथा निषेध नहीं होना चाहिये। उसकी मुख्यता-गौणता होती है, उसका निषेध नहीं आना चाहिये। उसका प्रयोजन .... समझना चाहिये। परको जानता ही नहीं, तो-तो ज्ञान और ज्ञेय, सब उसमेंसे निकल जाता है।
मुमुक्षुः- माताजी! द्रव्य और पर्यायके भेदज्ञानके लिये, द्रव्य और पर्यायके बीच भेदज्ञानके लिये, यह पर्याय इस गुणकी अथवा यह पर्याय इस ..की है, इतना रखकर पर्याय प्रतिक्षण अपने षटकारकसे परिणमति है, वह कथन है या वास्तवमें वस्तुस्थिति है? वस्तुस्थिति अर्थात द्रव्य-पर्याय मिलकर एक पूरी वस्तु है, उसका स्वीकारपूर्वक द्रव्य और पर्यायका भेदज्ञान करना हो, तब यह पर्याय इस द्रव्यकी है, अथवा ज्ञानकी पर्याय ज्ञानगुणकी है, इतना रखकर पर्याय अपने षटकारकसे परिणमति है, ऐसा कहना और पर्यायका कर्ता वास्तवमें द्रव्य ही है। यह तो एक अपेक्षासे कहनेमें आता है। इन दोनोंमें वास्तविकता क्या है?
समाधानः- पर्यायका कर्ता द्रव्य...?
मुमुक्षुः- स्वतंत्रपने अपने षटकारकसे परिणमती है? अन्दरके भेदज्ञानका जब विचार करें, परद्रव्यकी अपेक्षासे तो ऐसा कहें कि द्रव्य पर्यायका कर्ता है, पर्यायका करण है आदि षटकारक द्रव्य और पर्यायके अभेद कहे। और जब अन्दर-अन्दर भेदज्ञानका विषय करना है, तब द्रव्य कूटस्थ है और पर्यायके षटकारकसे पर्याय स्वयं स्वतंत्रपने परिणमति है, ऐसा जो कहनेमें आता है, स्वतंत्र परिणमे उसमें इतनी अपेक्षा तो रखी