દ્રવ્ય અને પર્યાયની સ્વતંત્રતાની સંધિ મેળવતા ફાવતું ન હતું તે વિષે પ્રશ્ન છે 0 Play द्रव्य अने पर्यायनी स्वतंत्रतानी संधि मेळवता फावतुं न हतुं ते विषे प्रश्न छे 0 Play
(પ્રશ્ન સમજાતો નથી) ઉપરના જવાબના રેફરન્સમાં છે. 1:50 Play (प्रश्न समजातो नथी) उपरना जवाबना रेफरन्समां छे. 1:50 Play
પહલે ભેદજ્ઞાન કરકે સમ્યગ્દર્શન હોતા હૈ ફિર આગે બઢતે હૈં 11:35 Play पहले भेदज्ञान करके सम्यग्दर्शन होता है फ़िर आगे बढते हैं 11:35 Play
મતિજ્ઞાન કેવલજ્ઞાનકો બુલાતા હૈ ઉસ સમ્બન્ધમેં 12:55 Play मतिज्ञान केवलज्ञानको बुलाता है उस सम्बन्धमें 12:55 Play
આત્મા અભીતક જ્ઞાતા હી હૈ, અતીન્દ્રિય જ્ઞાનમયી ભી હૈ 14:25 Play आत्मा अभीतक ज्ञाता ही है, अतीन्द्रिय ज्ञानमयी भी है 14:25 Play
શ્રુતજ્ઞાનસે આત્મા જાને ઔર કેવલજ્ઞાનસે આત્મા જાને ઉસમેં ક્યા અંતર હૈ? 15:20 Play श्रुतज्ञानसे आत्मा जाने और केवलज्ञानसे आत्मा जाने उसमें क्या अंतर है? 15:20 Play
માતાજી! આપ બારમ્બાર કહતે હૈં દેવ-ગુરુ-શાસ્ત્ર સમીપ રખે ઉસકો આત્મામેં જાનેકા અવકાશ હૈ? 16:15 Play माताजी! आप बारम्बार कहते हैं देव-गुरु-शास्त्र समीप रखे उसको आत्मामें जानेका अवकाश है? 16:15 Play
શ્રુતજ્ઞાનસે આત્માકો જાને.... યા અરિહંત ભગવાનકે દ્રવ્ય- ગુણ-પર્યાયસે જાને યહ યુક્તિ સ્વસંવેદનકો પ્રાપ્ત કરાતી હૈં? 18:50 Play श्रुतज्ञानसे आत्माको जाने.... या अरिहंत भगवानके द्रव्य- गुण-पर्यायसे जाने यह युक्ति स्वसंवेदनको प्राप्त कराती हैं? 18:50 Play
સમ્યગ્દર્શનકી પાત્રતા ક્યા હોની ચાહિયે? 20:55 Play सम्यग्दर्शनकी पात्रता क्या होनी चाहिये? 20:55 Play
मुमुक्षुः- माताजी! ... और बराबर बैठता नहीं था, क्योंकि दोनों विरोधाभासीदिखता था। दर्शनसे मिलान करनेका आता नहीं था। क्योंकि यह ज्ञानगुणकी पर्याय, ... उसके अविभाग प्रतिच्छेद, या गुण-पर्याय स्वतंत्रपने परिणमे, फिर भी द्रव्यके आश्रय बिना पर्याय होती है... एक अपेक्षासे तो द्रव्य ही कर्ता, कर्म,..
समाधानः- हाँ, द्रव्य ही कर्ता-कर्ता (है)। द्रव्यके आश्रयसे (होती है)। ... कहींखीँचा जाता हो, ऐसे वजन देनेमें आता है। अपेक्षा तो यहाँ गुरुदेव जो कहते थे, वह सबको बरसोंसे ख्यालमें है कि गुरुदेव निश्चय मुख्य रखकर व्यवहार कहते थे यह सबने ग्रहण किया है। परन्तु गुरुदेव व्यवहारको निकाल देनेको नहीं कहते थे। बरसोंसे सुना है इसलिये उस प्रकारका सबको ख्याल है। ... उसकी पक्कड नहीं करनी, वैसे पर्यायको निकाल नहीं देना तथापि पर्याय पर दृष्टि नहीं करनी। ऐसे गुरुदेवका आशय वह था।
... तो स्वयं उस बात पर भी उछल पडते और निश्चयकी बात आये तो उसमेंभी। इसलिये गुरुदेवके (प्रवचनमें) दोनोंकी सन्धि है। उनका उस प्रकारका वर्तन, परिणमन ही ऐसा था। निषेध करे, उसे करना क्या बाकी रहा? दृष्टि उसकी नहीं होती, परन्तु भावना आये, सब बीचमें आये। उस पर वजन नहीं देना है।