तत्त्व है वह स्वयं स्वभाव आनन्दस्वरूपसे भरा है। उसमेंसे (प्रगट होता है)। शुभभाव करे तो उस क्रियासे पुण्य बन्ध होता है। पुण्यसे देवलोक मिलता है। पुण्य भी विकल्प है। वह आकुलता है, परन्तु बीचमें आता है। शुद्धात्मा.. शुद्ध स्वभाव प्रगट न हो तब तक बीचमें शुभभाव आते हैं, लेकिन उससे पुण्यबन्ध होता है।
... क्रिया करे तो धर्म होता है, इतनी सामायिक की, फलाना किया, पूजा की, ... ऐसी मान्यता (थी)। परका कर सकते हैं, परका कुछ कर देते हैं, ऐसी सब मान्यता (थी)। गुरुदेवके प्रतापसे कोई किसीका कर नहीं सकता। स्वयं .. बाह्य क्रियासे धर्म नहीं होता। अंतर स्वभाव परिणति प्रगट (हो), स्वभावकी चैतन्य ओरकी क्रियामें धर्म रहा है, यह गुरुदेवने प्रगट किया। .. जैनोंमें ऐसा आये कि अनादि अनन्त आत्मा है, परन्तु मान्यतामें कुछ नहीं। मानों भगवान कर देते हों, ऐसा। अन्दर मान्यता देखो तो ऐसी पडी हो। भगवान कर देते हों।
अपना उपादान तैयार करे तो होता है। कोई द्रव्य किसीका कर नहीं सकता। भक्तिभाव आये, हे प्रभु! आप मुझे तारिये, ऐसा कहे। परन्तु स्वयं पुरुषार्थ करे तो भगवान निमित्त होते हैं। वह सब दृष्टि गुरुदेवने (दी), मार्ग बताया। .. सब पडे थे। दृष्टि ही यथार्थ नहीं थी वहाँ मार्ग कहाँ स्पष्ट होगा? इतना पढ लो तो ज्ञान होता है। सब छोड तो वैराग्य हो गया। अंतर परिणतिमें वैराग्य, विभाव परिणतिसे तुझे वैराग्य आये, स्वभावकी ओर तेरा वेग जाय, वह सब वैराग्य (है)। स्वभावकी ओर झुके तो परसे निवृत्ति हो और स्वभावकी ओर तू झुके तो वैराग्य (है), वह सब वैराग्यकी परिणति अंतरमें (होती है)। .. तो वैराग्य हो गया।
प्रयोजनभूत तत्त्वको पहचान तो तेरा सच्चा ज्ञान है। बाकी पढ ले, धोख ले उसमें सच्चा ज्ञान नहीं आता। गुरुदेवने पूरी दृष्टि बदल दी। नौ तत्त्व सीख ले, ये स्थानकवासी गुणस्थान सीख ले, वह सब सीख ले, कंठस्थ कर ले तो मानों बहुत सिख लिया।... ज्ञान है, ऐसा कहनेमें आता था। गुरुदेवने सब पर चौकडी रख दी। ज्ञान उसमें नहीं है। ज्ञान आत्मामें, सब आत्मामें है। प्रयोजनभूत तत्त्वको पहचान तो वह सच्चा ज्ञान है। ... वह बेचारा उपवास न करे तो उसे धर्म कैसे करना? ऐसी परिस्थिति (थी)। उसके बजाय, तेरे स्वभावको पहचान, भेदज्ञान कर, ज्ञायक तत्त्वको पहचान, अन्दर स्वानुभूति होती है वह मुक्तिका मार्ग है।
.. वह कहे, सिद्ध शिलामें ऊपर जाय उसे मोक्ष हुआ ऐसा कहते हैं। सिद्ध शिलामें ऊपर सिद्ध भगवान विराजते हैं, उसे मुक्ति कहते हैं। गुरुदेव कहते हैं, मुक्ति तेरेमें ही है। स्वभावसे द्रव्य मुक्त ही है। और पर्याय, स्वानुभूति होती है तब आंशिक मुक्ति यहाँ भी होती है। पूरी दृष्टि बदल दी। .. हो, उसके बाद पूर्ण मुक्ति (होती है)।