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समाधानः- ... दृष्टि ऐसी हो गयी है। ज्ञायककी-ज्ञाताकी धारा, जिसे सब छूट गया है, इसलिये उसे बाहर कहीं रुचता नहीं है। विभावका सब रस टूट गया है। अकेला आत्मा ही रुचता है। आत्माकी ओर परिणति हो गयी है। अकेले ज्ञायकके सिवा उसे कुछ रुचता नहीं। ज्ञायककी परिणति जैसे-जैसे प्रगट होती है, उसकी लीनता प्रगट हो वही उसको रुचता है, दूसरा कुछ नहीं रुचता। उसे अंतरकी इतनी श्रद्धा, रुचि, परिणति और लीनता अमुक प्रकारसे हुयी है और विभावका अनन्त रस टूट गया है और आत्मामें जो अनन्तता है, उस पर दृष्टि जम गयी है, उसे कहीं रुचता नहीं है।
अनन्त-अनन्त शक्ति जो आत्मामें है, वह उसे रुचती है, दूसरा कुछ रुचता नहीं है। परन्तु अभी उसे अस्थिरता है, पूर्ण केवलज्ञान नहीं है। पूर्ण लीनता नहीं हुयी है। श्रद्धा अपेक्षासे उसे कहीं रुचता नहीं है। परन्तु लीनता अधूरी है इसलिये बाहर जुडना पडता है। जुडता है, लेकिन उसे ज्ञाताकी धारा छूटती नहीं है। उसमें एकत्वतता नहीं होती, उससे भिन्न रहता है। अल्प अस्थिरता होती है अतः बाहर जुडना पडता है। वह बाहरके सब कायामें जुडता है, परन्तु अंतरसे उसे उदासीन धारा और ज्ञाताकी धारा ऐसे ही चलती रहती है। स्वयं भिन्न निराला रहता है।
उसे आंशिक ज्ञायककी धारा, ज्ञान और अमुक प्रकारकी परिणति, लीनता उसकी चालू ही है। उसे बाहर कहीं रुचता नहीं है। और वही करने जैसा है। क्योंकि ज्ञायक चैतन्य अदभुत है। अदभुत है वही महिमायोग्य है और वही आदरणीय है। दूसरा कुछ आदरणीय नहीं है। सबको वही करने जैसा है।
गुरुदेवने वह बताया है। वही अपूर्व मार्ग प्रगट करने जैसा है। स्वानुभूतिकी दशा प्रगट हो तो ही मुक्तिका मार्ग प्रगट होता है। और वह स्वानुभूति प्रगट होनेसे अंश- अंशमें लीनता बढती जाय, तो उसीमें उसकी पूर्णता और केवलज्ञान उसीमें प्रगट होता है। इसलिये वही करने जैसा है। इसके अलावा दूसरा कुछ आदरणीय नहीं है। आलम्बन तो एक आत्माका, दूसरा बाहरका आलम्बन वह आलम्बन नहीं है, वह तो विभावका आलम्बन है। स्वभावका आलम्बन ही सुखरूप है। वही स्वाधीनरूप है और उसीमें