सुख है, वही करने जैसा है, दूसरा कुछ करने जैसा नहीं है।
जब तक अल्पता है, तब तक देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, अमुक प्रकारसे वह बाहर जुडता है, परन्तु उदासीन भावसे जुडता है। गृहस्थाश्रमके कायामें जुडता है, परन्तु वह भिन्न-निराला रहकर जुडता है।
मुमुक्षुः- ... अनादि कालसे स्वरूपका फल नहीं आनेसे बार-बार ... लक्ष्य अन्दर नहीं रहता है।
समाधानः- अपने पुरुषार्थकी मन्दता है। उतनी स्वयंको रुचि नहीं है, उतनी लगन नहीं है, इसलिये अन्दर स्वयं पुरुषार्थ करता नहीं है। किसीका कारण नहीं है, अपना ही कारण है। अपनी आलसके कारण स्वयं आत्माको खोजता नहीं है, उसके दर्शन नहीं करता है। अपनी आलस है।
गुरुदेव कहते थे, "निज नयननी आळसे रे, निरख्या न हरिने'। अपनी आलसके कारण स्वयं पहचानता नहीं है। पुरुषार्थ करना अपने हाथकी (बात है)। अनादि कालसे जो परके साथ एकत्वबुद्धि हो रही है, उसे तोडकर स्वमें एकत्वता करके परसे भिन्न पडकर भेदज्ञान करे, वही करने जैसा है।
कल्याण स्वरूप सत्यार्थ वही है, जितना यह ज्ञायक-ज्ञान है वही कल्याणरूप और मंगलरूप और सत्यार्थ है। बाकी सब कल्याणरूप नहीं है, वह सब विभाव है। विभाव है सो आकुलता है। वह दुःखका कारण है। सुखका कारण हो तो आत्मा स्वयं है। वह सुखस्वरूप है, सुखका धाम है और सुख उसमेंसे ही प्रगट होता है। सुख बाहरसे कहींसे नहीं आता है। वह सुखका धाम है, वह ज्ञानका धाम है। उसमेंसे ज्ञान प्रगट होता है, उसमें सुख प्रगट होता है। सब उसीमेंसे प्रगट होता है, बाहरसे कहीं नहीं आता है। परन्तु वह अनादि कालसे बाहरमें व्यर्थ प्रयत्न करता है, वह उसकी भूल है। और स्वयंका प्रमाद है। अपने प्रमादके कारण बाहर अटक रहा है।
चैतन्यकी ओर उतनी रुचि हो, उतना वेग अपनी ओर हो और परसे विरक्ति हो। स्वभावकी ओर उसे उतनी लीनता जमे। स्वयंको अंतरसे पहिचाने, उस ओर दृष्टि करे, ज्ञान करे, लीनता करे तो वह सब अपने हाथकी बात है। "एमां ज नित्य विहार कर, नहीं विहर परद्रव्य विषे'। परद्रव्यमें विहार मत कर। "आमां सदा प्रीतिवंत बन, आमां सदा संतुष्ट...' इसमें प्रीतिवंत बन, इसमें संतुष्ट हो। वही सुखरूप है। "आनाथी बन तू तृप्त, तुझने सुख अहो उत्पन्न थशे...' इससे तू तृप्त हो। उसीमें उत्तम सुख मिले ऐसा है, वही सुखका धाम है। बाहर कहीं नहीं है। वही करने जैसा है। गुरुदेवने वही बताया है।
मुमुक्षुः- ..