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समाधानः- ... स्वानुभूतिका स्वरूप बताया। सबको कोई अलग ही दृष्टि दे दी कि, इस मार्ग पर जाओ। उस मार्ग पर जाने जैसा है।
मुमुक्षुः- सोनगढ-सोनगढ करते थे, मुझे सोनगढ जाना है।
समाधानः- ... चैतन्य कैसे पहिचाना जाय, उसे पहचानकर भवका अभाव (हो), जन्म-मरण टलकर आत्मा स्वयं अपना सुख अंतरसे प्राप्त करे, सुखका धाम आत्मा है, वह कैसे हो, बारंबार उसका अभ्यास और रटन करने जैसा है। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा और आत्माका अन्दर कैसे गहराईसे अभ्यास हो, अंतर संस्कार कैसे पडे, वह करने जैसा है। बाकी तो कल बहुत कहा है।
ऐसे प्रसंग बहुत कम बनते थे और थोडे बने तो वैराग्यको प्राप्त हो जाते। थोडे फेरफार देखकर वैराग्य होता था। थोडा (सफेद) बाल देखकर वैराग्य आता था कि बस! शरीर ऐसा है? ऐसे वैराग्य आता था। शरीरमें रोग देखकर वैराग्य आता था। उनको कहा कि तेरे शरीरमें रोगकी शुरूआत हुई है तो वैराग्य आ जाता।
... पहले तो दृष्टि पलटनी। सम्यग्दर्शन ... उसमें तो दृष्टि बदल जाती थी इसलिये एकदम सब छोड देते थे। कितनोंको तो सम्यग्दर्शन, चारित्र सब साथमें हो जाता था। भगवानके समवसरणमें बैठे हो, वहाँ वाणी सुने, वहाँ सम्यकत्व, वहाँ मुनिपद। चौथे कालमें सब ऐसा होता था। अंतर्मुहूर्तमें ... छोटे-छोटे बालक, गजसुकुमाल कैसे थे! घडी-घडीमें पलट जाय। चौथे कालमें भगवान साक्षात विराजते हों और वाणी छूटती हो वह बात अलग है।
.. वाणी छूटे, सबके हृदयका परिवर्तन हो जाय। यहाँ पंचमकालमें सब क्रियामें पडे थे। दृष्टि बदलनी मुश्किल थी। धर्म ही दूसरेमें मान लिया था। धर्मके मार्ग पर चढना मुश्किल (हो गया था)। सच्चा धर्म मिला वही महाभाग्यकी बात है। दृष्टि गुरुदेवने सबको दी कि इस रास्ते पर जाओ। रास्ता बताया। रास्ते पर जाना महादुर्लभ था। उसमें तो भगवानकी वाणी छूटती इसलिये इसी रास्ते पर सबको जाना था। इसलिये मुनि बन जाते। कितनोंको तो सम्यग्दर्शन, चारित्र सब एकसाथ हो जाता। एकदम परिवर्तन हो जाता था।