मुमुक्षुः- वह वैराग्य कैसा होगा!
समाधानः- एकदम वैराग्य आ जाता था। तो भी इस पंचमकालके हिसाबसे, गुरुदेवके प्रतापसे तो भी काल अच्छा है। दूसरी जगह देखो तो लोग कहाँ पडे होते हैं। यहाँ आकर वह प्रश्न पूछते थे, कहाँ सब पडे हैं। सुरधन और यह-वह। कहाँ- कहाँ पडे हैं। गुरुदेवने कहाँ आत्माके मार्ग पर लाकर रख दिया है। करना यह है। ज्ञायक चैतन्य कैसे पहिचानमें आये? ज्ञायक कैसे पहचाना जाय? मार्ग वह है।
मुमुक्षुः- उसमें तो ऐसा लगे, ओहो! मैंने बहुत किया, ऐसा किया, ऐसा लगे।
समाधानः- करना बाकी है। अन्दर चैतन्यको प्रगट करना, भेदज्ञान प्रगट करना, स्वानुभूति प्रगट करनी ऐसा तो रहे न। पुण्य हो, उसमें दूसरा कुछ दिखाई दे तो एकदम वैराग्य आ जाता। यहाँ तो पंचमकालके अन्दर तो अनेक जातके प्रकार बनते रहते हैं। उसमेंसे जीवको वापस मुडना... गुरुदेवने यह मार्ग बताया। भगवानके समवसरणमें कोई मुनि बन जाय, अन्दर आत्मामें शक्ति (प्रगट हो जाय), अन्दरमें ज्ञान प्रगट हो जाय, किसीको कुछ प्रगट हो जाय, अनेक प्रकार (बनते हैं)। केवलज्ञान किसीको प्रगट हो जाय, कोई मुनि बन जाय।
मुमुक्षुः- अनादि कालसे उसको अपने स्वभावकी तरफ ध्यान ... और स्वभावमें जाता है तो वहाँ ... और पहली बात तो स्वभावकी जानकारी नहीं है और जानकारी मिली तो वापिस उसमें स्थित होना बहुत ... होता है। तो अनादि कालसे विषयोंकी तरफ जो मुड रहा है तो इसके पीछे भी क्या स्थिति बनी है?
समाधानः- अनादि कालसे ज्ञायक स्वभाव... आत्माका तो ज्ञायक स्वभाव-जानना है। अनन्त गुण उसमें है, अनन्त शक्ति है। परन्तु विभावमें रुचि लगी है, इसलिये नहीं जा सकता। पुरुषार्थकी मन्दता है, रुचि नहीं है, परपदार्थमें रुचि करता है, परकी महिमा करता है इसलिये वहाँ टिक जाता है। परन्तु जो अपनी रुचि लगे, अपनी महिमा लगे तो अपनेमें पुरुषार्थ करे तो हो सकता है। वह ज्ञायक है-जाननेवाला है। मैं ज्ञायक जाननेवाला महिमावंत कोई अदभुत पदार्थ है। परपदार्थ तो कुछ जानता नहीं है। जाननेवाला कोई अलग है। उसमें संकल्प-विकल्पकी जाल भी उसका स्वभाव नहीं है। ये तो शरीर है, संकल्प-विकल्पकी जाल वह आत्माका स्वभाव नहीं है। आत्मा तो जैसे सिद्ध भगवान हैं, वैसा आत्मा है। प्रत्येक द्रव्य अनादि अनन्त शुद्धात्मा है। परन्तु विभावकी ओर दृष्टि जाती है, पुरुषार्थ मन्द है इसलिये वहाँ रुक जाता है। परन्तु यदि अपने स्वभावमें दृष्टि करे, उसका ज्ञान करे, उसमें लीनता करे तो हो सकता है, परन्तु पुरुषार्थकी मन्दताके कारण वह बाहरमें रुक जाता है।
पुरुषार्थ करे, आत्माको पहचाने, भीतरमेंसे पीछाने। जैसा स्फटिक निर्मल है, वैसा