Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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ट्रेक-

१४४ ही निर्मल है। उसमें जो लाल-पीला प्रतिबिम्ब उठता है वह स्फटिकका स्वभाव नहीं है। इसलिये आत्मा निर्मल है, उसमें विभावकी पर्याय आत्माका स्वभाव नहीं है। उसका भेदज्ञान करे। परसे एकत्वबुद्धि तोडकर स्वमें एकत्वबुद्धि करे। आत्मामें एकत्वबुद्धि करे, परसे विभक्त भेदज्ञान करे। ऐसे यदि पुरुषार्थ करे तो हो सकता है।

अनन्त कालमें बहुत आत्मा ऐसा भेदज्ञान करके, स्वमें एकत्वबुद्धि करके और स्वानुभूति प्रगट करके अनन्त जीवने आत्माके स्वरूपको प्रगट किया है और अनन्त जीव सिद्ध हुए हैं। इसलिये पुरुषार्थ हो सकता है, परन्तु अपनी कमजोरीके कारण वह अनादि कालसे रुक जाता है। बारंबार-बारंबार उसका पुरुषार्थ करना चाहिये। बाहर दौडता है तो भी बारंबार उसका पुरुषार्थ करना चाहिये। सुखका धाम है, ज्ञानका धाम आत्मा है। उसको बारंबार...

सम्यग्दृष्टि गृहस्थाश्रममें रहता है तो भी उसको न्यारा-न्यारा रहता है। उसने आत्माको पहचाना है, वह न्यारा रहता है। आत्माका ध्यान करके आत्माकी स्वानुभूतिमें लीन होता है। ऐसे गृहस्थाश्रममें भी हो सकता है। फिर विशेष पुरुषार्थ करे तो विशेष विरक्ति आये और आत्माका निराला विशेष पुरुषार्थ करके करे तो मुनि हो जाता है और बारंबार क्षण-क्षणमें आत्माकी स्वानुभूतिमें लीन होता है और केवलज्ञान प्रगट करता है। पुरुषार्थसे हो सकता है। रुचि अपनी बाहरमें लगी है उसको तोडकर आत्माके स्वभावको पीछाने, यथार्थ ज्ञान करे तो हो सकता है।

यथार्थ ज्ञान, यथार्थ ध्यान। सच्चे ज्ञान बिना सच्चा ध्यान नहीं हो सकता है। पहले सच्चा ज्ञान करे। मैं आत्मा हूँ, मेरा स्वभाव कोई जुदा है, मैं ज्ञायक स्वभावी हूँ। भीतरमेंसे पीछन करके। कोई कल्पना, धोख ले ऐसा नहीं, परन्तु स्वभावको पहचानकरके उसका भिन्न भेदज्ञान करे।

मुमुक्षुः- शब्दोचारणसे कुछ नहीं होता। अन्दरकी तरफ प्रवेश करे तो अंतरकी अनुभूतिका आनन्दका अनुभव करे तो कुछ पुरुषार्थकी तरफ...

समाधानः- हाँ, भीतरमेंसे अंतर दृष्टि करके स्वानुभूति प्रगट करे तो हो सकता है। ऐसे धोखनेसे नहीं होता है। जब तक नहीं होवे तब तक तत्त्व विचार, शास्त्र स्वाध्याय ऐसा होता है। परन्तु ऊपर-ऊपरसे नहीं होता है। भीतरमें अंतर दृष्टि करे, अंतरमें स्वानुभूति करे तो हो सकता है। यह एक उपाय है-स्वानुभूति प्रगट करना। ऐसे बाहर क्रिया करता है, शुभभाव करता है तो पुण्यबन्ध होता है, तो देवलोक होता है, परन्तु भवका अभाव तो एक शुद्धात्मा निर्विकल्प तत्त्व है उसको पहचाननेसे भवका अभाव होता है और चैतन्यका स्वानुभव होता है। शुभभाव बीचमें आता है, परन्तु वह पुण्यबन्धका (कारण है)।