मुमुक्षुः- शुभभाव पुण्यबन्धका ही कारण है।
समाधानः- पुण्यबन्धका ही कारण है।
मुमुक्षुः- शुद्ध भाव अथवा अनुभूति जो है वह..
समाधानः- वह मुक्तिका कारण है। अभ्यास तो विभावका हो गया है। ऐसा स्वभावका अभ्यास करे, बारंबार करे तो हो सकता है।
मुमुक्षुः- ...
समाधानः- छाछमेंसे मक्खन निकलता है न? ऐसे मंथन करनेसे मक्खन करनेसे मक्खन ऊपर आ जाता है। ऐसे बारंबार अभ्यास करना। चैतन्य तो निराला है। परन्तु निराला प्रगट करना वह बारंबार करनेसे होता है। ऐसे अंतर्मुहूर्तमें तो चौथे कालमें किसीको होता है, परन्तु वैसे तो पुरुषार्थ करनेसे बारंबार अभ्यास करनेसे होता है।
... कितने साल हो गये। आता है न? "अशुचिपणुं विपरीतता ए आस्रवोना जाणीने, वळी जाणीने दुःखकारणो एनाथी जीव पाछो वळे।' दुःख और दुःखका फल, दुःखका कारण है। अशुचिपना, विपरीत स्वभाव सब आस्रव है, दुःखस्वरूप है, दुःखका कारण है, दुःखका फल है। उससे वापस मुडे। आत्मा सुखस्वरूप है। सुखका कारण है, सुखका फल है, सब उसीमें है।
स्वयंको अपना स्वभाव अनुकूल है, पवित्रस्वरूप है। ज्ञानस्वरूप है वह अपनेआपको विपरीत नहीं है, परन्तु स्वयं अपनेको सानुकूल स्वभाव है। पवित्रका धाम है, सुखका धाम है, सुखका कारण है, सुखका फल उसमेंसे प्रगट होता है। उससे जीव वापस मुडे, भेदज्ञान करके वापस मुडे। एक द्रव्यकी दो क्रिया नहीं होती, एक द्रव्यको दो कर्ता नहीं होते, तो भी जीव अनादि कालसे मैं परद्रव्यको करता हूँ और परद्रव्य मेरी क्रिया है, ऐसा ही मान बैठा है। स्वयं अपने स्वभावका कर्ता और स्वभावकी परिणतिरूप क्रिया वह अपनी क्रिया है। विभावकी क्रिया वह तो अज्ञान आश्रित है, परन्तु परद्रव्य जडकी क्रिया मैं करता हूँ, ऐसा मानता हूँ, वह उसका भ्रम है। कर कुछ नहीं सकता है, मात्र अज्ञान करता है।
कैसा उसका स्वभाव, कैसा सुखका धाम तो भी अनन्त काल ऐसे ही बाह्य दृष्टिमें गंवाया है। स्वभाव दृष्टि करे तो सादि अनन्त काल (सुखमें रहे)। अनन्त काल उसका पूरा होता है और सादि अनन्त सुखका काल (चालू होता है)। सुखका धाम अनन्त काल उसका नाश ही नहीं होता, परन्तु स्वयं वापस मुडे तो उसकी शुरूआत होती है। वापस मुडना उसे दुःष्कर हो जाता है।
गुरुदेव मिले और सबको एक जातकी दृष्टि दी। अंतर दृष्टिकी कोई अलग बात है, परन्तु यह दिशा बतायी है कि इस दिशामें जाओ। अंतर दृष्टि प्रगट करनी वह