१४८ गुरुदेवके हृदयमें कुछ नहीं था।
मुमुक्षुः- क्षमाके भण्डार थे। गुरुदेवके पास कोई नर्म होकर आये तो गुरुदेव कहे, अब वह बात याद मत करना।
समाधानः- हाँ, ऐसा ही कहते, याद मत करना। ऐसा ही कहते थे। पहलेसे सबको गुरुदेव पर भक्ति थी।
मुमुक्षुः- हाँ, सब भाईओंको।
समाधानः- .. ग्रहण कर लेना। जो हो गया सो हो गया। गुरुदेव पर उन लोगोंको भक्ति तो थी।
मुमुक्षुः- गुरुदेवके प्रति तो थी।
समाधानः- गुरुदेव प्रति थी।
मुमुक्षुः- गुरुदेव भी याद करते थे। गुरुदेव बारंबार कहते थे।
समाधानः- .. सब याद करना। बीचमें हो गया, अब फिरसे ऐसा न हो ऐसी आराधना आत्मामें प्रगट करनी। .. विचार करते थे, दिल्हीमें सब चलता था। देव- गुरु-शास्त्र शरण है, गुरुदेवको हृदयमें रखना। आत्माकी महिमा, ज्ञायकके पंथ पर जाना। गुरुदेवका समुद्र भर जाय उतना विस्तार था। भगवानकी दिव्यध्वनिका पार नहीं है, वैसे गुरुदेवका एक शब्द पर विस्तार, बहुत विस्तार होता है। कितने शास्त्र लिखे तो भी भण्डार भरे हैं।
करना तो एक ही है, एक करना है-आत्माका स्वरूप पहचानना। उसके लिये तत्त्व विचार, शास्त्र स्वाध्याय आदि उसके लिये है। करना तो एक ही है। एक आत्माका स्वरूप पहचानना। जो तत्त्व है, उसमें स्वभाव पीछानकर बराबर उसे ग्रहण करना। आत्माको ग्रहण करना वही करना है। शरीर भी आत्मा नहीं है, विभाव अपना स्वभाव नहीं है। शुभाशुभ भावसे भी भिन्न आत्मा तत्त्व कोई अलग है-न्यारा है, उसको पीछानना। करना तो एक ही है, ध्येय तो एक ही है। उसके लिये विचार आदि चलते हैं। शास्त्र स्वाध्याय सब उसीके लिये हैै।
एक आत्माको जाने वह सबको जानता है। उसके लिये सब जानना, विचारना, सब उसके लिये है। गुरुदेवका व्याख्यान सुना है? दिल्हीमें?
मुमुक्षुः- हाँ, दो दफे दिल्हीमें सुना है।
समाधानः- आप इधर नहीं आये हो?
मुमुक्षुः- इधर नहीं आये हैं। एक दफे जयपूर आये थे। वहाँ जयपूर चले गये। वहाँ रहने गये हम।
समाधानः- ... अपने कारणसे स्वानुभूति नहीं करता है, अपने कारणसे भेदज्ञान