१४८ समय उसको देते हैं, फिर भी स्थिरता नहीं हो पाती है।
समाधानः- समय देते है, ... होता है, रुचि होती है फिर भी टिकता नहीं वह अपनी क्षतिका कारण है। जितना कारण होना चाहिये उतना कारण नहीं मिलता है इसलिये कार्य नहीं होता है। कारण मन्द, मन्द, मन्द पुरुषार्थसे हो नहीं सकता। मन्द, मन्द, मन्द होता है तो उसमें टाईम दे, विचार करे, वांचन करे, सब करे, तत्त्वका विचार करे परन्तु स्वभावको ग्रहण करना चाहिये। ध्येय एक होना चाहिये-स्वभावको ग्रहण करे, भेदज्ञान करे। ऐसे मूल प्रयोजनभूत कार्यको करना चाहिये। तत्त्व विचार, शास्त्र स्वाध्यायका मूल प्रयोजन चैतन्यको ग्रहण करना और भेदज्ञान करना। अपने स्वभावको ग्रहण करना।
मुमुक्षुः- आप और गुरुदेवने बताया वह तो सही है। भूलका पता नहीं चलता है, कहाँ भूल रह जाती है, वह नहीं (समझमें नहीं आता)।
समाधानः- विश्वास तो ऐसे बुद्धिसे होता है, परन्तु भीतरमें परिणति उस ओरकी करनी चाहिये न। बुद्धिमें निर्णय तो होता है कि गुरुदेवने कहा है, वह सच्चा है। वस्तु स्वरूप ऐसा है, विचार करके भी निर्णय करे कि मैं ऐसा हूँ, यह मेरा स्वभाव नहीं है। ऐसा विचार करके निर्णय करे, परन्तु परिणतिको तन्मय करनी चाहिये न। परिणति तो विभावमें जाती है। निर्णय करता है कि मैं यह हूँ, यह हूँ, यह हूँ। परन्तु मैं यह नहीं हूँ, ऐसे भेदज्ञानकी परिणति जबतक प्रगट नहीं होती, (तबतक) नहीं हो सकता। परिणति प्रगट होनी चाहिये।
मुमुक्षुः- उसीका उपाय बताईये कि परिणति अपनेमें कैसे आये?
समाधानः- उसका उपाय अपना पुरुषार्थ करना, परिणतिको पलटनेका उपाय करना। परिणति कैसे पलटे वैसे करना। परिणतिको बारंबार अपनी ओर लाना। क्षण-क्षणमें परिणतिमें विभावमें एकत्वबुद्धि हो रही है। ऐसे स्वभावमें एकत्व होना चाहिये। जैसा निर्णय होवे वैसा कार्य होना चाहिये। निर्णय तो किया लेकिन कार्य ऐसा नहीं किया। कार्य ऐसा करना चाहिये कि जैसी रुचि हो कि मैं पर नहीं हूँ, मैं तो स्व चैतन्य हूँ, विभाव मैं नहीं हूँ। ऐसा निर्णय तो किया लेकिन एकत्वबुद्धि तो हो रही है। नक्की तो किया परन्तु कार्य नहीं किया। कार्य करनेका प्रयत्न करना।
मुमुक्षुः- यहाँका कण-कण जो है, वह गुरुदेवकी वाणीसे गूँज रहा है। और गुरुदेव दो बार तो आते ही हैं।
समाधानः- गुरुदेव बोलते हैं। गुरुदेव बोलते हो ऐसा लगता है। कण-कण पावन है। ४५ साल तक सोनगढमें गुरुदेवकी निरंतर वाणी बरसती रही। ४५ साल तो सोनगढमें विराजे।