मुमुक्षुः- ४५ साल चौमासे किये गुरुदेवने? हाँ, ४५ साल।
समाधानः- ... थोडा समय सौराष्ट्रमें घुमकर आते थे। बादमें हिन्दुस्तानमें जाने लगे। पहले तो बहुत रहते थे।
मुमुक्षुः- ये आशीर्वाद दो कि क्षयोपशम जाग जाय।
मुमुक्षुः- क्षयोपशमकी कोई कीमत नहीं है।
समाधानः- कम जाने उसकी विशेषता नहीं है। रुचि आत्माकी होवे, प्रयोजनभूत ज्ञान होवे कि मैं जाननेवाला ज्ञायक हूँ, यह मेरा स्वभाव है, यह विभाव है, ऐसे मूल प्रयोजनभूत तत्त्वको जाने तो उतना क्षयोपशम तो होता ही है। परन्तु विशेष तर्क, वादविवादमें न जा सके तो उसकी कोई आवश्यकता नहीं है। मूल क्षयोपशम ऐसे प्रयोजनभूत तत्त्वको जान लेना। छः द्रव्यमें मैं एक जीवतत्त्वको ग्रहण करुँ। नौ तत्त्वमें एक जीवतत्त्वको ग्रहण करुँ। अपना अनादिअनन्त पारिणामिकभाव, अनादि ज्ञायकभाव ऐसी मूल वस्तुको ग्रहण करु। और दूसरा सब ज्ञानमें जाननेमें आता है कि गुणका भेद है, पर्याय है, गुण है, पर्याय है। ऐसा जान लेना।
दृष्टि तो एक आत्मा पर रखनी और ज्ञानमें जान लेना कि ये गुण है, पर्याय है, सब जान लेना। पुरुषार्थ तो अपनेमें करना है। वह विभाव है, शुभभाव भी अपना स्वभाव नहीं है। बीचमें आता है। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा सब आती है। परन्तु वह अपना स्वभाव तो नहीं है। शुद्धात्माको ग्रहण करना और बीचमें आता है, ऐसा शुभभाव तो आता है, परन्तु वह दुःखरूप है-आकुलतारूप है। इसलिये अपने स्वभावको ग्रहण करना। ये विभाव है, ये स्वभाव है, उसका भेदज्ञान करना। स्वमें एकत्वबुद्धि, परसे विभक्तबुद्धि, ऐसा जानकर भेदज्ञानकी धारा प्रगट करना। मूल तत्त्वको समझ लेना। ज्यादा क्षयोपशम नहीं होवे, तर्क, वादविवाद आदि समझमें न आवे तो उसकी कोई जरूरत नहीं है। मूल वस्तुको (जान लेना)।
ज्ञायककी धारा कैसे प्रगट होवे? विकल्प टूटकर स्वानुभूति कैसे प्रगट होवे? वही जीवनका कर्तव्य है। उसका बारंबार अभ्यास करना, वही करना है। एक कल्याणरूप, मंगलरूप ज्ञायक स्वभाव है, उसको ग्रहण करना। ... बढते-बढते भीतरमें स्वानुभूति बढकर मुनिदशा आती है, वह सब स्वानुभूतिका प्रताप है, उसके कारणसे आती है। उसमें केवलज्ञान (होता है)। स्वानुभूति प्रगट होनेसे होता है। मुख्य तो सम्यग्दर्शन है। अनादि कालमें जीवने सम्यग्दर्शन नहीं प्रगट किया। शास्त्रमें आता है कि जिनवर स्वामी और सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हुए। जिनवर स्वामी मिले तो सही परन्तु स्वयंने ग्रहण नहीं किया-पहचाना नहीं। और सम्यग्दर्शन तो प्रगट ही नहीं हुआ है। उसको प्रगट करनेका पुरुषार्थ करना, वही जीवनका कर्तव्य है।