Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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ट्रेक-

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मुमुक्षुः- सम्यग्दर्शन ही मूल है।

समाधानः- मूल सम्यग्दर्शन, मूल सम्यग्दर्शन है। ... आनन्द है, स्वानुभूतिमें सब है। अनन्त गुण स्वानुभूतिमें हैं। अनन्त ऋद्धि स्वानुभूतिमें है, आत्मामें सब है।

... उसमेंसे सब प्रगट होता है। ऊपरसे ग्रहण करे तो कुछ प्रगट नहीं होता। वह तो तल-स्वभावको ग्रहण करे तो उसमेंसे स्वभावमेंसे स्वभावपर्याय आये। स्वभावमें जाये तो स्वभावमेंसे स्वभावपर्याय प्रगट होती है। अन्दरमें जाये तो स्वभावमेंसे स्वभावपर्याय प्रगट होती है। विभावकी ओर दृष्टि है तो विभावपर्याय होती है। दृष्टि विपरीत है तो दृष्टिमें सब ऊलटा ही आता है। सुलटी दृष्टि होकर स्वभावकी ओर दृष्टि जाय, स्वभावकी परिणति हो तो स्वभावपर्याय होती है। तो परिणति पलटे, परिणति पलट जाय। यदि स्वभाव पर दृष्टि जाय तो परिणति पलटती है। शुद्धात्मा पर दृष्टि जाय तो शुद्धपर्याय प्रगट होती है।

मुमुक्षुः- ... स्वभावमेंसे पर्याय आयी, ऐसे कहना है?

समाधानः- ... नहीं, जैसा स्वभाव है वैसी दृष्टि हो। पर्याय प्रगट होती है वही एक दशा है। दशा कहो या पर्याय कहो। स्वभाव पर दृष्टि जाये तो उस जातिकी दशा होती है। जैसे दृष्टि वैसी उसकी दशा है। दृष्टि अनुसार सृष्टि, ऐसा गुरुदेव कहते थे। जैसी दृष्टि हो वैसी उसकी सृष्टिकी रचना होती है। जैस ओर दृष्टिकी परिणति हुई, स्वभावकी ओर दृष्टि गयी, स्वभावकी ओर (हुयी) तो उस जातिकी सृष्टि उसे स्वभावकी ही रचना होती है। स्वभावकी ओर गया तो स्वभावकी रचना होती है और विभावकी ओर जाय तो विभावकी रचना होती है। दशा भी वैसी (होती है), जैसी दृष्टि वैसी दशा होती है।

ज्ञायक पर दृष्टि गयी तो ज्ञायकरूप परिणमित हुआ, ज्ञायककी धारा हुयी। विकल्पसे रहित आत्मा है, ऐसी दृष्टि हुई, वैसी धारा उसने प्रगट की तो विकल्प टूटकर निर्विकल्प दशा हुयी। जैसी दृष्टि उसने ग्रहण की, वैसी उसकी दशा होती है। दशा कहो या पर्याय कहो, सब एक ही है।

मुमुक्षुः- स्वभावकी दृष्टि करनी यानी क्या?

समाधानः- स्वभाव पर दृष्टि, स्वभावकी ओर दृष्टि। दृष्टि, जो अपना चैतन्यका स्वभाव है कि मैं ज्ञायकरूप चैतन्य हूँ, उस ज्ञायकका अस्तित्व ग्रहण करके उस पर दृष्टिको स्थिर कर देना कि मैं यह चैतन्य ही हूँ। मैं ये विभाव नहीं हूँ, परन्तु मैं चैतन्यद्रव्य चैतन्य सामान्य तत्त्व सो मैं हूँ। उसमें गुणके भेद, पर्यायके भेद गौण हो जाते हैं, जहाँ दृष्टि एक अभेद पर गयी तो। स्वभाव पर दृष्टि गयी, चैतन्य पर दृष्टि गयी, वहाँ दृष्टि जम गयी। दृष्टि उसे ही लक्ष्यमें लेती है कि मैं यह चैतन्य हूँ, चैतन्य