Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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८६अमृत वाणी (भाग-४)

हूँ, यह मैं नहीं हूँ। ये शरीरादि, ये विभावकी परिणति, ये विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। परन्तु मैं चैतन्य हूँ। मैं चैतन्य हूँ, ऐसी दृष्टि प्रगट होती है। दृष्टि कहो, प्रतीत कहो। उसकी दिशा बदल गयी है। दृष्टि स्वयं चैतन्य पर थँभ गयी है। मैं चैतन्य हूँ, चैतन्य हूँ, मैं ज्ञायक ही हूँ, अन्य कुछ नहीं। अंतरमेंसे ऐसी दृष्टि प्रगट हो जाती है। और ऐसी दृष्टि हुयी तो परिणति उस ओर जाती है कि मैं ज्ञायक ही हूँ, ऐसी धारा प्रगट हो। ऐसी यथार्थ परिणति हो तो उसे निर्विकल्प दशा होती है। वह उसका कारण और कार्य आता है स्वानुभूति। यथार्थ कारण प्रगट हो, यथार्थ दृष्टि प्रगट हो तो स्वानुभूति प्रगट होती है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!