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मुमुक्षुः- उसे अंतरसे बैठना चाहिये। उस प्रकारसे कुछ आपका जवाब था। बुद्धिसे नहीं, अपितु अंतरसे। इन दोनोंमें क्या अंतर है?
समाधानः- बुद्धिसे विचार करके निर्णय किया वह तो बुद्धिसे (हुआ)। अंतरमेंसे प्रगट करे। जो स्वभाव है, उस स्वभावमें पहुँचकर ग्रहण होना चाहिये कि यह चैतन्य सो मैं हूँ। विचार किया कि यह चैतन्य मैं हूँ, यह मैं नहीं हूँ, ऐसा विचारसे निर्णय किया वह विचारसे निर्णय नहीं, अंतरमेंसे होना चाहिये। अंतरमेंसे कि जो अन्दरमें अपना अस्तित्व है वह अस्तित्व ग्रहण होना चाहिये कि यह चैतन्यका अस्तित्व सो मैं, यह बाहरकी जो परिणति होती है वह मेरा मूल स्वभाव नहीं है, वह तो पर्यायें हैं। उसका अस्तित्व ग्रहण होना चाहिये। विचारसे निर्णय करे। पहले आता है, परन्तु अंतरमेंसे दृष्टि प्रगट होनी चाहिये।
मुमुक्षुः- जैसे रागका स्वामीत्व है कि यह मेरा है, मैं हूँ। ऐसे उसे अपने चेतनत्वका स्वामीत्व, मेरापना, अहंपना प्रगट होना चाहिये। उसे अंतरमेंसे प्रगट हुआ (ऐसा कहते हैं)?
समाधानः- मैं यही हूँ, यह मैं नहीं हूँ। स्वमें स्वबुद्धि (करे) कि मैं यही हूँ। मैं उसका स्वामी, वह विकल्प हुआ। लेकिन मैं जो चैतन्य है वही मैं हूँ। उतनी बुद्धि उसमें तदाकार-तदरूप दृष्टि उस रूप परिणमित हो जाय। जो एकत्वकी परिणति चल रही है, वह भिन्न होकर यह मैं हूँ, यह मैं नहीं हूँ। ऐसी अंतरमेंसे उस प्रकारकी परिणति प्रगट हो जाय।
मुमुक्षुः- उसका उपयोग..
समाधानः- उसका उपयोग बाहर जाता है, परन्तु अन्दर दृष्टि प्रगट होनी चाहिये, उस प्रकारकी।
मुमुक्षुः- राग हो ऐसा कोई गुण जीवमें नहीं है। राग हो ऐसा जीवमें कोई गुण नहीं है। और ऐसे सीधा ले तो चारित्रगुणकी पर्याय है, उसमें राग चारित्रगुणकी विपरीतताके कारण होता है, वहाँ कहनेका भावार्थ क्या है?
समाधानः- आत्माके मूल स्वभावमें राग हो ऐसा उसका स्वभाव नहीं है। उसमेें