अमुक प्रकारकी योग्यता है, वैभाविक योग्यता है (तो) चैतन्यमें विभाव परिणमन होता है। उसके मूल स्वभावमें कहीं राग नहीं होता है। स्फटिक स्वभावसे निर्मल है, वैसे स्वभावसे तो स्वयं निर्मल ही है। उसके मूल स्वभावमें अन्दर प्रवेश (नहीं हुआ है)। स्फटिकमें मूल स्वभावमें लाल-कालेका प्रवेश नहीं होता है। वैसे उसका मूल स्वभाव, उसमें राग हो ऐसा उसका स्वभाव नहीं है। स्वभावमें उसका प्रवेश नहीं होता। उसकी परिणतिमें ऐसा हो जाता है। उस प्रकारकी उसमें योग्यता है, पर्यायमें हो वैसी। वैभाविक शक्ति है, उसमें ऐसी योग्यता है। वह होता है। वह नहीं हो तो उस जातका वेदन, आकुलता कुछ नहीं होता। उस जातकी विभावपर्याय होती है। लेकिन मूल स्वभावमें नहीं है। मूल स्वभावमें जाकर देखे तो, जैसे स्वभावसे पानी निर्मल है, स्फटिक निर्मल है, वैसे उसका स्वभाव निर्मल है। निर्मलता पर दृष्टि करे तो निर्मल ही है। इसलिये निर्मलको ख्यालमें लेना और ये सब जो विभावकी पर्याय है, स्वयं अपनी ओर आये तो उसकी विभाव परिणति छूटकर स्वभाव परिणति हो। फिर अल्प अस्थिरता रहती है, वह भी पुरुषार्थसे क्रम-क्रमसे छूट जाती है।
सर्वगुणांश सो सम्यकत्व। चैतन्यकी ओर परिणति गयी तो सर्व गुणोंका अंश स्वभावकी ओर परिणति प्रगट (होती है)। इस ओर दिशा है तो सब विभावपर्याय होती है। पूरा चक्कर दृष्टि इस ओर मुडी तो सब ऐसे मुड जाता है। फिर अल्प अस्थिरता रहती है, उसकी भी धीरे-धीरे शुद्धि होती जाती है। चारित्रकी निर्मलता (होती है)। एक तत्त्वको ग्रहण करे तो उसमें सब आ जाता है। ज्ञान, आनन्द आदि सब उसमें प्रगट होता है। एक उसकी दृष्टि बदले तो।
मुमुक्षुः- .. पुरुषार्थ क्यों उठता नहीं है?
समाधानः- सबका एक ही प्रश्न आता है। क्यों नहीं उठता है? अपना ही कारण है, किसीका कोई कारण नहीं है। स्वयंकी रुचिकी क्षति है और अपनी मन्दता है। गुरुदेव कहते थे, किसीका कारण नहीं है। नहीं कर्म रोकते, नहीं और कोई रोकता। प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है। अपनी रुचि बाहर विभावमें रुकी है, इसलिये रुक गया है। स्वयं अपनी ओर जाय तो स्वतंत्र है। उसे कोई रोकता नहीं है। प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है। स्वयं विभावमें जानेवाला स्वतंत्र (है), स्वभावमें आनेवाला स्वयं स्वतंत्र है। अपनी स्वतंत्रतासे स्वयं अपनेमें आ सकता है। स्वयं स्वयंको पहचान सकता है।
स्वयं अपना स्वभाव पहचानकर स्वयंकी ओर जाना है। बाहर अटका है। स्वयंकी ओर जाना। मैं चैतन्यदेव चैतन्यस्वभावसे भरा हुआ, ज्ञायकतासे भरा हुआ आत्मा हूँ। अपनी ओर जाना। सब विभाव आकुलतारूप है। स्वभाव शान्ति और आनन्दसे भरा है। उस ओर जाना, उस ओर परिणतिको मोडना आदि सब अपने हाथमें है। भेदज्ञान