१४९ करना, स्वानुभूति करना, सब मुक्तिका मार्ग गुरुदेवने प्रकाशित किया है। आनन्द स्वभावमें भरा है। ज्ञान, आनन्द सब आत्मामें है, बाहर कहीं नहीं है।
मुमुक्षुः- .. विकल्पका जोर बढ जाता है। स्वभाव हाथमें आता नहीं है, विकल्प उत्पन्न हो जाता है। स्वभावको स्वयं प्रयत्न करके ग्रहण करना। प्रज्ञासे भिन्न करना और प्रज्ञासे ग्रहण करना, (ऐसा) शास्त्रमें आता है। और गुरुदेव भी ऐसा ही कहते थे। विकल्पका जोर बढे तो उसके सामने अपना जोर बढाना। चैतन्य परिणतिका जोर बढे तो वह टूटे। स्वयं अपने स्वभावको ग्रहण करना और विभावसे भिन्न करना। प्रज्ञासे ग्रहण करना, प्रज्ञासे भिन्न करना अपने हाथकी बात है। विकल्पका जोर बढे तो उसके सामने नहीं देखकर स्वयं अपने स्वभावका जोर बढाना। बारंबार उसीका अभ्यास करना। उसीका अभ्यास करना, उसमें थकना नहीं। उसीकी ओर अभ्यास करते रहना।
... सबका सार एक है-मैं एक शुद्ध ममत्वहीन ज्ञान-दर्शनसे भरा आत्मा हूँ। मैं एक शुद्ध आत्मा हूँ। अनादि अनन्त शाश्वत हूँ। चैतन्य ज्योति है। ये सब तो जड है, ये सब दिखाई देता है वह। चैतन्यकी ज्योति अनादिअनन्त शाश्वत है। प्रत्यक्ष ज्ञात हो ऐसा है, कहीं अपरोक्ष नहीं है। स्वयं प्रत्यक्ष है। परोक्ष नहीं है, परन्तु प्रत्यक्ष है। प्रत्यक्ष ज्योति है, अनादि अनन्त है। नित्य उदयरूप है। वह गुप्त नहीं है, नित्य प्रगट ही है। उदित आत्मा है। उसे अनुभव नहीं होता है, अनुभव हो तो उदय कहा जाय। परन्तु स्वभाव उदयरूप है, नित्य उदयरूप है। प्रत्यक्ष चैतन्यकी ज्योति है। चैतन्यस्वभाव है, ज्ञानघन स्वभाववान है। उसका स्वभाव ज्ञानसे भरा ऐसा चैतन्य प्रत्यक्ष अनुभवमें आये ऐसा है। ऐसा एक स्वरूप आत्मा है। अखण्ड ज्योति है। उसमें खण्ड नहीं पडता। ऐसा आत्मा है। उसे ग्रहण करने जैसा है।
बाकी सब अनादिसे परिणमन हो रहा है, वह सब परिणमन परके साथ एकत्वयुक्त है। चैतन्य एक स्वरूप आत्मा, शुद्ध चैतन्यज्योति उसे ग्रहण करने जैसा है। अनादिअनन्त शाश्वत चैतन्य है। प्रत्यक्ष है। दिखायी नहीं देता है, फिर भी प्रत्यक्ष है। स्वयं प्रत्यक्ष है, गुप्त नहीं है। परोक्ष तो अपेक्षासे कहनेमें आता है। परोक्ष नहीं है। केवलज्ञानकी अपेक्षासे कहा है। उसका वेदन तो स्वानुभूतिमें प्रत्यक्ष होता है। प्रत्यक्ष ज्योति है। ये बाहरकी ज्योति नहीं, ये तो चैतन्यकी ज्योत ऐसा आत्मा है। एक स्वरूप आत्मा शुद्धात्मा, उसे ग्रहण करने जैसा है। उसे ग्रहण करे और उसकी महिमा आये तो सब विभाव परिणतिका रस टूट जाय, चैतन्यकी महिमा आये तो। ऐसा एक शुद्धात्मा है।
एक शुद्धात्मा है। सब प्रक्रियासे पार। उसमें कर्ता, क्रिया, करण, संप्रदान, अपादान आदि प्रक्रिया .... स्वभावरूप है। किसी भी प्रकारका भेद नहीं है। ऐसा शुद्ध है। किसी भी प्रकारका उसमें कर्ता, परका कर नहीं सकता, परकी क्रिया कर नहीं सकता।