उसे कुछ दे सके, उसमेंसे कुछ ले सके, उसका वह आधार नहीं है। ऐसा आत्मा है। ऐसी सब प्रक्रियासे पार आत्मा ऐसा चैतन्यतत्त्व है। उस तत्त्वको ग्रहण करने जैसा है।
.... अनादि कालसे कर रहा है, फिर भी ममत्वहीन हूँ। परका ममत्व, स्वामीत्वबुद्धि कर रहा है, तो भी कहते हैं, मैं ममत्वहीन हूँ। उसका स्वामीत्व पुदगलका है, स्वयंको नहीं है। फिर भी स्वामीत्व मान तो लेता है। तो भी कहते हैं, मैं उससे स्वामीत्व रहित, उससे भिन्न चैतन्यतत्त्व है। विभावका विश्वरूपपना। विभाव तो पूरे विश्वमें व्याप्त, ऐसा विभाव है। परन्तु मैं उसका स्वामी नहीं हूँ।
... अपने स्वभावमें शान्ति और आनन्द भरा है। वह तो बाहरका संयोग है। देव- गुरु-शास्त्र आत्माको प्राप्त करनेमें निमित्त हैं। देव-गुरु-शास्त्र, जिन्होंने आत्माकी साधना करके पूर्णता प्रगट की, उसकी भावना बीचमें आये बिना नहीं रहती। साधकोंको शुभभावमें भावना आती ही है कि देव-गुरु-शास्त्र मुझे समीप हो, ऐसी भावना आती है। परन्तु वह हेयबुद्धिसे आती है। हेय होने पर भी उसे भावना होती है कि देव-गुरु-शास्त्रकी समीपता हो। वह होनेपर भी भावना आती है।
गुरुदेवकी वाणी जोरदार थी कि सेवक ऐसा ही कहे कि, प्रभु! मैं आपके कारण तिरा। ऐसा कहे। परन्तु उपादान अपना है। भावना ऐसी (आती है)। निमित्त पर आरोप करके (कहता है कि), प्रभु! आपने मुझे तारा। शुभभावमें तो ऐसा आता ही है। आचाया भी ऐसा कहते हैं, सब ऐसा ही कहते हैं। ... वह तो उसका स्वभाव नहीं है, अपना स्वभाव नहीं है ऐसा जाने। परन्तु शुभभावमें ऐसा आये कि प्रभु! आप मुझे तारिये, ऐसा आये।
मुमुक्षुः- देव-गुरु-शास्त्रके प्रति बहुमान आये बिना नहीं रहता।
समाधानः- रहता ही नहीं। जिसे ज्ञायकओरकी परिणति हो, उसमें ऐसा बहुमान आता ही है। आचायाको भी ऐसा बहुमान आता है। आचार्य भी शास्त्र लिखे तब जिनेन्द्र भगवानको नमस्कार करते हैं।
मुमुक्षुः- सभी वस्तुएँ क्रमबद्ध हैं तो पुरुषार्थकी महत्ता नहीं रही।
समाधानः- क्रमबद्ध, पुरुषार्थपूर्वक क्रमबद्ध होता है। जिसमें पुरुषार्थ समाविष्ट है। क्रमबद्ध होनेके बावजूद उसमें पुरुषार्थ साथमें होता है। उसका जो पुरुषार्थ करे, जिसे पुरुषार्थकी भावना होती है, उसीका क्रमबद्ध सुलटा होता है। जिसे पुरुषार्थ नहीं करना है, प्रमाद करना है, उसका क्रमबद्ध भी उलटा होता है। उसे संसारका क्रमबद्ध होता है। जिसे पुरुषार्थकी भावना हो, उसीका क्रमबद्ध मोक्षकी ओर होता है। जिसे पुरुषार्थ नहीं होता, उसे क्रमबद्ध सुलटा नहीं होता। पुरुषार्थके साथ सम्बन्ध है।