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समाधानः- ... दृष्टि उठाकर और दृष्टि एक चैतन्य पर स्थापित करने जैसा है। उसे स्थापित करके उसकी दृष्टि की, उस ओर ज्ञान और परिणति सब उस ओर मोडकर वह करना है। बुद्धिमें ग्रहण करके भी अंतर परिणति पलटनेकी जरूरत है। गुरुदेवने यह कहा है।
मुमुक्षुः- बहिनश्री! आप कहते हो कि सबसे भिन्न आत्मा है, दृष्टि उस पर करनी, वह सब तो थियरी हुयी, बात हुयी, परन्तु दृष्टि अन्दर ले जाते हैं, परन्तु पकडमें क्यों नहीं आता है? आप, ग्रहण करना ऐसा कहते हो, परन्तु ग्रहण क्यों नहीं होता है? उसे कैसे ग्रहण करना?
समाधानः- बुद्धिमें ग्रहण किया, परन्तु अंतरमें उसका स्वभाव पहचानकर ग्रहण करना।
मुमुक्षुः- स्वभावको पहिचाना कि तेरा स्वभाव तो शुद्ध है, परिपूर्ण है, एक है, अखण्ड है, नित्य है। और द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्मसे तू तो त्रिकाल रहित है, ऐसा शुद्ध परमात्मतत्त्व अंतरमें विराजमान है। उसे विचारधारामें लेते हैं, ज्ञानधारामें लेते हैं, श्रद्धाकी धारा भी मोडकर हम उसी तत्त्वको पकडनेकी महेनत करते हैं। एकान्तमें बैठकर, ध्यानमें बैठकर उस चीजको पकडनेके लिये (प्रयास करते हैं), फिर भी वह चीज पकडमें नहीं आये और एक विकल्प, पर्याय और द्रव्यके बीच अवरोधरूप रहा करता है, उस विकल्पको छेदकर पर्याय द्रव्यको कैसे और कब ग्रहण करे? उस विकल्पको कैसे चिर दे, ये बताइये।
समाधानः- विकल्पका भेद करना। चैतन्यकी ओर उसकी परिणतिका जोर आये, दृष्टिका जोर आये और उसीकी ओर उसीकी तमन्ना लगे, उसकी लगन लगे, विकल्पमें आकुलता लगे, चैन पडे नहीं और उस ओर दृष्टिका जोर हो, परिणतिकी दौड लगे, पुरुषार्थका बल हो तो उस ओर जाय। जबतक बाहरमें एकत्वबुद्धिमें अकटता है, भले बुद्धिमें ग्रहण करे परन्तु एकत्वबुद्धिमें अटके तबतक वह टूटता नहीं। अपने स्वभावका जोर हो तो वह टूटे ऐसा है।
मुमुक्षुः- जोर प्रगट करनेकी कोशिष, उसकी महेनत करते हैं, एकत्वबुद्धि तोडकर