Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 962 of 1906

 

१०९
ट्रेक-
ट्रेक-१५२

१५२ प्रवृत्तिमें जीव अनादि कालसे अटक गया है। परको मैं कर सकता हूँ और पर मेरा कार्य है। स्वभावरूप परिणमन करनेवाला मैं और स्वभाव मेरा कार्य, वह परिणति प्रगट हो तो वह मुक्तिका कार्य है। आत्मा ज्ञानका धाम है, सुखका धाम है, सब उसमेंसे प्रगट होता है। वह सत्य आश्रय है, आत्मा द्रव्यका आश्रय।

आस्रव है वह अपना पराश्रय भाव है। शुभभाव बीचमें आते हैं। उसमें देव- गुरु-शास्त्रका आश्रय होता है। परन्तु चैतन्यके आश्रयपूर्वक, चैतन्यका आश्रय प्रगट हो, उस पूर्वक होना चाहिये, उसके ध्येयपूर्वक। स्वयंका आश्रय वह सत्य आश्रय है। यह स्वाधीनता है, वह पराधीनता है। उसका सान्निध्य कैसे प्रगट हो? वह परिणति प्रगट करने जैसी है। यह सान्निध्यता तो उसे मिली, लेकिन अंतरका सान्निध्य कैसे प्रगट हो? वह करने जैसा है। उसकी समीपता कैसे प्रगट हो? सुखका धाम, ज्ञानका धाम कैसे प्रगट हो? उसकी परिणति प्रगट कर। प्रथम वह करने जैसा है, सबको यह करना है। ये तो बैठे हैं, उनको ... ऐसा नहीं है, सबको करने जैसा है।

... और उसे स्वभावपरिणति प्रगट हो उसमेंसे अनन्त गुण-पर्याय प्रगट हो। ऐसे उसमें अनन्त गुण-पर्याय कोई अपूर्व है। सिद्धदशामें उसके गुणकी पर्यायें कोई अपूर्व प्रगट होती हैं। स्वानुभूतिमें भी उसकी गुण-पर्यायें प्रगट होती हैं। ऐसे अनन्त-अनन्त गुणोंसे भरा, जिसका पार नहीं है और अदभूत आश्चर्यकारी तत्त्व है। उसीका आश्चर्य करने जैसा है, उसीकी अदभूतता करने जैसी है। परपदार्थ कोई अदभूतरूप नहीं है या आश्चर्यरूप नहीं है या सुखरूप नहीं है या सुखका कारण भी नहीं है।

आत्मा ही सुखका कारण और अदभूत एवं आश्चर्यकारी तत्त्व है। उसीका आश्चर्य करने जैसा है। और उस आश्चर्यके ध्येयसे, बस, जीवन वह जीवन है। बाकी सब तो बाहरका विषय है। उसके ध्येयपूर्वकका जीवन वह वास्तविक जीवन है।

द्रव्यदृष्टि करके उसका ज्ञान करे। नहीं तो परिणति कैसे जाय? स्वसे एकत्व और परसे विभक्त, ऐसी भेदज्ञानकी परिणति क्षण-क्षणमें, क्षण-क्षणमें प्रगट करता हुआ, अपने समीप होकर स्वानुभूति प्रगट करे, वही करने जैसा है।

(गुरुदेवने) भेदज्ञानका मार्ग बताया है। कोई जानता नहीं था। सब क्रियामें धर्म मानते थे। शुभभावसे धर्म होता है, ऐसा मानते थे। शुभभाव तो पुण्यबन्धका कारण है, आकुलतारूप है, पराधीन है। आत्मा स्वयं शुद्धात्मा वही सुखरूप है, वह स्वाधीन है, वही आत्माका स्वयंका स्वभावभूत भाव है। वह तो विभावभाव है, ये तो स्वभावभूत भाव है। वह करने जैसा है। गुरुदेवने यही बताया है। निर्विकल्प-विकल्प तोडकर निर्विकल्प दशा, ज्ञाताकी धारा उग्र करके विकल्प तोडकर निर्विकल्प दशामें जो स्वानुभूति हो, वही करने जैसा है और वही स्वानुभूतिका मार्ग गुरुदेवने बताया है, ऐसी निर्विकल्प