दशाका।
गुरुदेव इस पंचमकालमें कोई अदभूत, कोई अदभूत प्रगट हुए थे। पंचमकालका यह महाभाग्य कि उनकी वाणी कोई अदभूत और वह आत्मा भी अदभूत (थे)। पंचमकालका ऐसा ही कोई भाग्य कि सबको गुरुदेव मिले। ... जीवनका ध्येय यह (होना चाहिये)।
.. दशा प्रगट हो तो वही मुक्तिका मार्ग है। उसीमें मुनिदशा, केवलज्ञान, स्वानुभूतिके मार्गमें ही प्रगट होता है। ज्ञाताधाराकी उग्रता हो, उसीमें त्याग समाविष्ट है। वास्तविक त्यागकी परिणतिमें उसमेंसे प्रगट होती है। वही करने जैसा है। क्षण-क्षणमें मुनिओं तो स्वानुभूतिमें, बारंबार स्वानुभूतिमें लीन होते हैं। बाहर आना भी, आये तो भी टिक नहीं सकते। तुरन्त अंतरमें चले जाते हैं। ऐसा करते-करते केवलज्ञानकी प्राप्ति करते हैं। शाश्वत अंतर आत्मामें, कोई आश्चर्यकारी आत्मामें जम जाते हैं। आनन्दके धाममें अनन्त गुणका जो खजाना है, उसमें जम जाते हैं। सादिअनन्त काल। गुरुदेव...
.. मानों गुरुदेव मन्त्र ही देते हों। जो उन्होंने मन्त्र दिये, वह मन्त्र हृदयमें उत्कीर्ण कर लेने जैसे हैं। ज्ञायक तो स्वयंके पास है। उनके द्वारा दिये गये मन्त्र अन्दर उत्कीर्ण कर लेना। ज्ञायकके साथ गुरुदेवके मन्त्र उत्कीर्ण हो जाय तो ज्ञायक स्वयं स्वयंके रूपमें परिणमित हो जाय। गुरुदेवने ज्ञायकका ही मन्त्र दिया है।
.. जो मन्त्र दिये हैं, उसे ग्रहण कर लेना। .. प्रवृत्ति छूट जाय और ज्ञाताकी धारा प्रगट हो। ... ज्ञायक स्वभावमें रह तो... उस दिन कहा। अन्दर ज्ञायकको पहचानो, द्रव्य पर दृष्टि करो, अर्थात उसमें भेदज्ञान करो, स्वकी एकत्वबुद्धि, परसे विभक्त और भेदज्ञान करो। स्वभाव है, उसमें पूरा स्वभाव ज्ञात हो जायगा।
स्वभावभूत क्रिया आता है न? विभावकी क्रिया,... कर्ता-कर्मकी प्रवृत्ति है तबतक विभावकी क्रिया है। यह तो स्वभावभूत क्रिया है। स्वभावभूत क्रियाके साथ आत्माको तादात्म्य सम्बन्ध है। ... वह सम्बन्ध तो मूल है। आत्माकी स्वभावभूत क्रियाके साथ तो ज्ञानका तादात्म्य सम्बन्ध है। उसमें बन्धका अभाव होता है। वह कर्ता, कर्म, क्रियाकी प्रवृत्ति है। विभावके साथ सम्बन्ध है।
क्राधादिमें क्रोधादि परिणमते हैं। उसमें क्रोधादिमेंसे क्रोधादि आते हैं। क्रोध कहकर सब विभाव ले लेना। क्रोधादिमेंसे क्रोधादि पर्याय आती है। उसीका वेदन होता है, वही दिखे। और ज्ञानमें ज्ञानका दर्शन होता है, ज्ञान मालूम पडता है, ऐसा शब्द शास्त्रमें आता है। इसमेंसे कोई-कोई शब्द कर्ता-कर्म अधिकारके बोलती हूँ। कोई-कोई गाथा परसे उसका अर्थ आये और कोई शब्द टीकाके आये।
आस्रव है वह दुःखरूप है, आकुलतारूप है, विपरीत है। आत्मा स्वयं सुखका धाम है। आत्माका स्वयंका स्वभाव है। वह तो विपरीत स्वभाव है। वह दुःखके कारण