१५३ तो लिया। तो उन्हें पंच महाव्रत है, उसका आश्रय है। उसका आश्रय वह नहीं है, उनका आत्मा शुद्धात्मा है। इसलिये स्वानुभूतिके आश्रयसे स्वयं मुनिपना पालते हैं। क्षण- क्षणमें, क्षण-क्षणमें स्वानुभूतिमें लीन होते हैं। वह उनका आश्रय है। बस, अंतर्मुहूर्त- अंतर्मुहूर्तमें स्वानुभूतिमें ही मुनि लीन होते हैं। वह उनका आश्रय है। उसमें लीन होते- होते उन्हें वीतरागदशा प्रगट होती है।
उनकी परिणति इतनी स्वरूपकी ओर चल गयी है, विभावसे इतनी हठ गयी है, विभावसे इतनी विरक्ति आ गयी है कि स्वयं स्वयंमें ही समा जाते हैं। ऐसी विरक्ति आयी है इसलिये तो मुनिपना अंगीकार किया है। गृहस्थाश्रममें रह नहीं सके ऐसी दशा आ गयी इसलिये मुनिपना अंगीकार कर लिया। स्वयं स्वयंमें ही लीन होते हैं, अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूार्तमें।
.. ऐसा हो जाता है कि अब गृहस्थाश्रममें रह नहीं सकूँगा। इतनी लीनतामें परिणति वर्धमान हो जाती है कि रह नहीं सकूँगा। अभी प्रमत्त-अप्रमत्त दशा साक्षातरूपसे नहीं आती है, परन्तु उसकी भावनाकी परिणति ऐसी हो जाती है कि स्वयं बाहर विकल्पमें ज्यादा रह नहीं सकता है, ऐसा उसे हो जाता है। इसलिये मुनिपना अंगीकार करता है। फिर छठ्ठा-सातवाँ गुणस्थान तो मुनिपना अंगीकार करता है, तब आता है साक्षातरूपसे। परन्तु उसकी भावनारूपसे विरक्तिकी परिणति ऐसी हो जाती है। शास्त्र लिखे, सब लिखे तो भी क्षण-क्षणमें अंतरमें चले जाते हैं। क्षण-क्षणमें अंतरमें चले जाते हैं।
(सम्यग्दृष्टि, श्रावक) निराले हो गये हैं। स्वानुभूतिमें उसकी दशा अनुसार जाते हैं। परन्तु मुनि तो क्षण-क्षणमें जाते हैं। ऐसा करते-करते आत्मामें जो पूर्ण ज्ञान है, वह प्रगट होता है। आत्माकी अनन्त शक्तियाँ प्रगट होती है। भगवान अपने पास है। स्वयं ही है चैतन्य भगवान। एकत्वबुद्धि और भेदज्ञानकी धारा, बस, वही उसका मार्ग है। एकत्वबुद्धि अपनेमें, परसे विभक्त-भेदज्ञानकी धारा। स्वमें अभेद दृष्टि है और परसे भेदज्ञान। वह उसका मार्ग क्षण-क्षणमें, क्षण-क्षणमें सहज धारा बढते-बढते स्वानुभूतिको प्रगट करके फिर पहुँचता है। दृष्टिमें गुणका भेद नहीं आता, परन्तु ज्ञानमें गुणभेद, पर्यायभेद सब जानता है। वस्तुका स्वरूप ज्ञान (जानता है)। परिणति दृष्टिके बलसे आगे जाती है।