Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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ट्रेक-
ट्रेक-१५४

१५४ शास्त्रका तू जैसे स्मरण करता है, उन्हें हृदयमें (रखता है), वैसे ज्ञायकको तू हृदयमें रखना। उसका सान्निध्य तो रखना। उसका अंतरमें अभ्यास हो तो ज्यादा अच्छी बात है। उसे हृदयमें तो रखना। देव-गुरु-शास्त्रकी जैसे महिमा रखता है, वैसे ज्ञायकको तू हृदयमें रखना। तो होता है। शास्त्र मेरे (हृदयमें है), वैसे ज्ञायक भी मेरे हृदयमें आओ। अंतरमें तो अभी (दूसरी बात है), ये तो धोखनेरूप है।

जिनेन्द्र देव भगवान.. गुरु कहते हैं न? तेरा आत्मा भी भगवान है। देव-गुरु- शास्त्र भगवान, वैसे ज्ञायक भी भगवान है। स्वयं भगवान है। चतुर्थ काल हमेशा होता है, इस भरतक्षेत्रमें ही ऐसा होता है। पंचमकाल आता है। वहाँ हमेशा तीर्थंकर एवं मुनि आदि विचरते हैैं। इस पंचमकालमें ही ऐसा होता है, इस भरतक्षेत्रमें।

.. अनेक नयोंके पहलूसे जानना है। नयपक्ष पहले आता है, लेकिन फिर छूट जाता है। आत्मा बद्ध है और आत्मा अबद्ध है, आत्मा एक है और आत्मा अनेक है, वह सब विकल्प आते हैं। स्वभावसे एक है और गुणसे अनेक है। जाननेमें नयपक्ष (आता है)। लेकिन फिर अतिक्रांत हो जाता है। दृष्टि एक भी नयपक्षका स्वीकार नहीं करती। वह तो अभेद है। लेकिन विकल्प छूटे तब सब नयपक्ष छूट जाते हैं। तू तुझे पहचान। .. इतना स्पष्ट कर-करके गुरुदेवने मार्ग स्पष्ट कर दिया है।

... हर जगह आत्मा ही मुख्य है। प्रशस्त कायामें ... चलता ही रहता है। सबमें आत्मा। आत्माका आश्रय। सब प्रशस्त कायामें आत्मा ... संयममें, नियममें मेरा आत्मा। आत्मामें ही बसना है। मेरा आत्मा ही समीप है। ... आश्रय ले तो ऐसा हो जाय कि कैसे आश्रय लूँ? यह आश्रय छूटता नहीं और वह आश्रय होता नहीं। अनादिसे विभावका आश्रय हो गया है। आत्माका आश्रय लेना उसे अत्यंत दुष्कर हो गया है। स्वयं स्वयंसे दूर हो गया हो, ऐसा उसे भ्रम हो गया है। स्वयं होने पर भी।

.. आत्मा समयसार.. आत्मा ही उसका प्रयोजन है। आत्माको साधे। .. स्वरूप आत्मा, ज्ञायकभावरूप आत्मा। संयम, तप, नियम सब आत्मा स्वयं ही है। आत्मा स्वभावरूप है। शुभ विकल्प आये वह अलग, वह तो पुण्यबन्धका कारण है। ... खोज लेना, कहींसे भी आत्माको खोज लेना। .. आत्मार्थी हो वह आत्माका प्रयोजन साधे। आत्माको खोज ले। आत्माका प्रयोजन और आत्मवस्तुको खोजे। वह उसका कार्य है।

प्रथम भूमिका विकट होती है। .. प्रसंगोंमें जो लाभ मिला, वह सब भाग्यशाली है। ऐसे गुरुदेव मिले और उनका इतना सान्निध्य, वाणी एवं ये सब मिला। इस पंचमकालमें ये सब मिलना बहुत मुश्किल था। महाभाग्यकी बात है कि गरुदेव पधारे। ... प्रतापसे सबको मिले। सबको मिले हैं। उनका जितना करें उतना कम है। उनकी जितनी सेवा करें और जितना लाभ मिले, सब कम है। उसमें आता है, "अर्पणता पूरी नव अमने