Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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१२२अमृत वाणी (भाग-४)

आवडे, ...' चाहे जितना किया, लेकिन सब कम ही है।

समाधानः- ज्ञायक सो ज्ञायक है, आता है न। प्रमत्त भी नहीं और अप्रमत्त भी नहीं है। उसमें क्या पूछना है, कि आत्मा ज्ञायक ही है?

मुमुक्षुः- किसी भी अवस्थाके बिना ... एकरूप है, ऐसा बताना है?

समाधानः- कोई भी अवस्थामें ज्ञायक सो ज्ञायक ही है। साधक अवस्थाकी कोई भी पर्याय हो, प्रमत्त दशा या अप्रमत्त दशा, आचार्यदेव कहते हैं, छठ्ठवे-सातवें गुणस्थानमें मुनिराज कहते हैं। छठ्ठवा-सातवाँ गुणस्थान, अप्रमत्त अवस्था या प्रमत्त अवस्था, कोई भी दशामें आत्मा तो ज्ञायक सो ज्ञायक ही है। जो आत्मा अनादिअनन्त जो ज्ञायक, ज्ञायकरूप ज्ञात हुआ वह तो ज्ञायक ही है। दोनों दशामें ज्ञायक है। उसे अप्रमत्त दशा, साधक दशाकी वृद्धि हो, अप्रमत्त दशा हो या प्रमत्त दशा हो, अवस्था कोई भी बढती जाय, तो भी उसमें ज्ञायक तो ज्ञायक ही है।

मुमुक्षुः- शुभभावमें थकान लगे तो अन्दर जाना हो सकता है। शुभभावमें भी थकान लगे। आचार्य भगवान कहते हैं, "तत्प्रति प्रीतिचित्तेन येन वार्तापि ही श्रुता', इसमें कैसे (मेल है)?

समाधानः- आचार्यदेवकी वह अपेक्षा अलग है और वह अपेक्षा अलग है। "तत्प्रति प्रीतिचित्तेन येन वार्तापि ही श्रुता' अर्थात उतनी प्रीतिसे बात भी सुनी है अर्थात जिसे उतनी अंतरमें रुचि है, आत्माकी ओर इतनी प्रीति है कि मुझे आत्मा कैसे समझमें आये? इसलिये उसे आत्मा भी अपूर्व लगे। ये आत्मा कैसा अपूर्व होगा! ऐसी आत्माकी ओरकी रुचि प्रगट हो तो उस ओर उसकी परिणति जाती है। यथार्थ रुचिरूप कारण प्रगट हो तो कार्य होता है। ऐसा आचार्यदेव कहते हैं। यथार्थ कारण हो, यथार्थ प्रीति हो अंतरसे, सुननेकी प्रीति ऐसी अंतरसे लगे कि अन्दर आत्माकी ओर चला जाय, ऐसी प्रीति लगे।

इसलिये उसे यथार्थ रुचि हो तो यथार्थ कार्य आता है। परन्तु जो शुभभावमें अटका है कि शुभभावसे मुझे धर्म होता है, शुभके साथ जिसकी एकत्वबुद्धि है तो आत्मा तो शुद्धात्मा तो शुद्धात्म स्वरूप ही है। शुभभाव उसका स्वभाव नहीं है। इसलिये शुभभावमें यदि एकत्वबुद्धि हो जाय तो वह आगे नहीं चल सकता। और शुभाशुभ दोनों भावोंमें उसे थकान लगनी चाहिये, उसे आकुलता लगनी चाहिये, दुःख लगना चाहिये। क्योंकि वह मेरा स्वभाव नहीं है, मैं उससे भिन्न हूँ। ऐसी उसे यथार्थ प्रतीत हो, ऐसा उसे अन्दरसे दुःख लगे, थकान लगे तो ही वह आगे जाता है।

परन्तु बीचमें यह रुचि आये, उस रुचिमें वह शुभभावमें ग्रहण नहीं करता है, परन्तु आत्माकी अपूर्वताको ग्रहण करता है। शुभभाव तो बीचमें आते हैं। जब तक