१५४ केवलज्ञान नहीं होता, तब तक उसे बीचमें शुभभाव (आते हैं), जब तक उसकी वह दशा है तब तक आते हैं। मुनिओंको भी शुभभाव तो आते हैं, परन्तु हेयबुद्धिसे आते हैैं कि वह अपना स्वभाव नहीं है। इसलिये उससे भेदज्ञान-भिन्न-न्यारे रहते हैं। सम्यग्दृष्टि भी उससे न्यारा रहता है। उसका भेदज्ञान वर्तता है कि शुभभाव अपना स्वभाव नही ंहै। ऐसी प्रतीत न हो तब तक आगे नहीं बढता। उसमें थकान नहीं लगे तो आगे नहीं बढता।
परन्तु "तत्प्रति प्रीतिचित्तेन' अर्थात तू शुभभाव कर, ऐसा अर्थ नहीं है। उसे अपूर्वता लगती है। उस बातकी अपूर्वताके साथ आत्मवस्तुकी अपूर्वता लगती है। अर्थात अपूर्वता लगनेसे वह स्वयंकी ओर जाता है। शुभभावसे वह आगे बढता है, ऐसा उसका अर्थ नहीं है। परन्तु उसे अपूर्वता (लगती है)। शुभभाव तो साथ-साथ आते हैं, परन्तु वह आदरणीय नहीं है, लेकिन उसे शुभभाव साथमें आते हैं। परन्तु उसकी परिणति तो अपूर्वताकी ओर जाती है। ऐसी अपूर्वता लगती है इसलिये आगे जाता है। अंतरसे ऐसी यथार्थ रुचि जागृत होती है। शुभभावसे आगे बढा ऐसा उसका अर्थ नहीं है, अपूर्वतासे आगे जाता है।
(शुभभाव) बहुत बार किये, लेकिन उसमें सर्वस्व मान लिया, इसलिये वहाँ रुक गया है। आचार्य ऐसा कहते हैं कि शुभभाव तेरा स्वभाव नहीं है। लेकिन तेरा आत्मा कोई अपूर्व है, उसे पहिचान। अतः अपूर्वता लगे तो आगे बढता है। ऊँची दशा प्रगट हो, अपूर्वकरण आये कि केवलज्ञान (प्रगट हो), कोई भी ऊँची-ऊँची दशा प्रगट हो तो भी ज्ञायक तो ज्ञायक ही है। वह सब पर्यायें, शुद्धिकी पर्यायें प्रगट होती है। इसलिये ज्ञायक अनादिअनन्त है, उस पर दृष्टि कर। कहनेका तात्पर्य यह है। ज्ञायक ज्ञायकरूप ही रहता है। ज्ञायककी दृष्टिकी डोर ज्ञायककी ओर ही है, तो उसमें शुद्धिकी पर्यायें प्रगट होती जाती है। (शुद्धि) बढती जाय तो भी उसकी दृष्टि तो ज्ञायक पर ही है।
मुमुक्षुः- शुद्धभाव अधिकारमें भी वही बात कही है? कि जिवादि सात तत्त्व हेय है, आत्मा ग्राह्य है?
समाधानः- सब भाव हेय हैं, एक आत्मा ग्राह्य है। बाकी सब भाव-क्षयोपशमभाव, उपशमभाव, उदयभाव, क्षायिकभाव। एक पारिणामिकभाव ही ग्रहण करने योग्य है। बाकी सब हेय है। बीचमें आते हैं। उपशमभावकी पर्याय प्रगट होती है, क्षायिकभाव तो आत्माकी शुद्ध निर्मल पर्याय प्रगट होती है, क्षयोपशमभाव अधूरी पर्याय है, सब पर्याय पर दृष्टि करके अनादिअनन्त पारिणामिकभाव है, उसे ग्रहण करे। आत्माको ग्रहता है। पारिणामिकभाव अर्थात पूरा आत्मा, अखण्ड आत्मा अनादिअनन्त है उसे ग्रहण कर। वह सब भाव तो बीचमें पर्यायें हैं।