करे। ... अनादिका अभ्यास ... अपने प्रमादसे अटका है। स्वयं स्वयंका स्वभाव पहचाने तो स्वयं ही है। वह कहते हैं न कि, देवलोकमें सब अहमिन्द्र हैं। ऐसे स्वयं अहमिन्द्र है। सिद्धशिलामें सब सिद्ध भगवान अहं-स्वयं स्वयंमें परिणमते हैं। स्वयं। वह तो क्षेत्र है। सब स्वयं अपनेमें परिणमते हैं। स्वयं चैतन्य है, मैं ज्ञायक हूँ, मैं चैतन्य हूँ। सत्तासे सब एकसमान भगवान आत्मा ही हैं। व्यक्ति हो तब व्यक्तिमें सब समान होते हैं। केवलज्ञान प्रगट करे तब। अपना चैतन्यनगर देखनेकी, आनन्दनगर (देखनेकी) अपनी तैयारी स्वयंको करनी चाहिये। स्वयं तैयारी करे तो उसमें कोई शत्रु प्रवेश नहीं कर सकता। सब भगवान आत्मा है।
फिर सब टेढेमेढे प्रश्न पूछते रहे। ... वीतराग ही है। समयसारमें आता है उसे गिनना ही नहीं। उसकी क्या गिनती है? अल्पकी। शास्त्र कहता है कि जो मुख्य हो ज्ञायक, उसे ही गिनना। वह तो गौण है, उसे नहीं गिनना। वीतरागी परिणति प्रगट हुयी वह वीतराग ही है। ... जो देखे वह उसकी क्षति है। उनका गुरुपद है उस दृष्टिसे देखना चाहिये। .. हो उसे गुरुकी कृपा हुए बिना नहीं रहती और वह आगे बढे बिना रहे नहीं। ऐसा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। जो नहीं हो रहा है उसमें स्वयंकी क्षति है। उसमें गुरुका कोई कारण नहीं है। गुरुकी वाणी एकरूप बरसती है। एकरूप वाणी बरसे, अपूर्व वाणी, उसमें कौन कैसे ग्रहण करे वह अपने उपादानका कारण है, उसमें गुरुका कोई कारण नहीं है। स्वयंकी पात्रताकी क्षति है। जो तैयार हो उस पर गुरुकी कृपा होती ही है। वाणी तो एकसमान बरसती थी। उसमें जिसका उपादान तैयार हो वह ग्रहण करता है। जो तैयार हो उस पर गुरुदेवकी कृपा होती ही है। ऐसा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध ही है।
.. रह सकूँ ऐसा था ही नहीं। इतने साल निकल गये, इतने साल निकल गये ऐसा होता था। चार-पाँच साल रह सकूँ ऐसा तो था ही कहाँ। इतने साल हो गये, १८ साल हुए, २० साल हो जायेंगे, यह होगा ऐसा विकल्प आता था, उसमें पाँच साल तो कहाँ रह सकू ऐसा था? एकसमान उग्रता ... विचार करनेमें साल, डेढ साल निकल गया। वह उग्रताकी अपेक्षासे। इतने साल हो गये, बाकीके जानेमें कहाँ देर लगेगी? अभी क्यों कँपकँपी होती नहीं? अभी क्यों अन्दर काँपता नहीं है? ऐसा सब आता था, उसमें पाँच साल कहाँ निकलनेवाले थे?
ऐसे विकल्पमें जीव अटकता नहीं। पक्षातिक्रांत निर्विकल्प स्वरूप, आत्माकी ओर जिसकी परिणति गयी, उसकी वाणी दूसरोंको चैतन्यकी ओर ले जानेवाली होती है। अन्दरसे जो बद्ध हूँ या अबद्ध हूँ, ऐसे रागके विकल्पमें जो नहीं है, उसे वीतरागी परिणति हुयी, उसे राग है ऐसा कहना वह तो एक प्रकारका अस्थिरताकी ओर पक्ष