१५५ लेना वह तो बिलकूल निरर्थक है। उसकी वाणी, निराली परिणतिमेंसे जो उपदेश निकलता है, वह दूसरोंको हितरूप ही होता है। उसका प्रत्येक कार्य दूसरोंको हितरूप होते हैं।
कहते हैं न? सत्पुरुषकी वाणी दूसरोंको हितरूप ही होती है। उसके सर्व कार्य दूसरेको हितरूप होते हैं। क्योंकि वह स्वयं भिन्न परिणतिरूप परिणमे हैं इसलिये। ... उसके सर्व कार्य दूसरोंको हितरूप होते हैं। इसलिये कहते हैं न? सत्पुरुषके प्रत्येक कार्य दूसरोंको हितरूप होते हैं। उसके योग्य ही होते हैं। सत स्वरूपरूप परिणमित हुआ आत्मा, उसके सर्व कार्य, जिसने सत ग्रहण किया उसके सर्व कार्य योग्य और सतरूप ही होते हैं। ग्रहण करने योग्य और आदर करने योग्य ऐसा आत्मा जिसने ग्रहण किया, आदरने योग्य आत्मा जिसने ग्रहण किया उसके सर्व कार्य ऐसे ही होते हैं। अंतरमें जिसकी परिणति ऐसी है, उसका बाहरमें सब योग्य ही होता है। छोडनेयोग्य सब छूट गया। उसके सब कार्य ऐसे योग्य ही होते हैं। मुख्य ज्ञाता पर दृष्टि। मुख्यको ग्रहण करना, गौणताको ग्रहण नहीं करना।
.... आचाया और मुनिओंकी तो क्या बात करनी? लेकिन यह मुक्तिका एक अंश जो प्रगट हुआ, वहाँ भी ऐसा ही होता है। उसमें भी गुरुदेवका जीवन तो कैसा था। पहले तो गुरुदेव संप्रदायमें थे (उस वक्त) कोई सेठ आये या राजा आये, किसीके सामने भी नहीं देखते थे। सामने यानी उनका प्रवचन चलता हो उसमें वह ऐसा कहे कि आप थोडा देरसे शुरू करिये। वे तो उनके समय पर ही, राजा आये तो भी क्या और कोई भी आये तो भी क्या। गुरुदेव पहलेसे ही ऐसे निस्पृह थे। और उनकी वह निस्पृह आखिर तक चलती रही। बाहरमें भले दिखाई न दे। बाहरमें दूसरेने पहलेका कुछ नहीं देखा हो न इसलिये। परन्तु ऐसा ही था। जीवन भी ऐसा ही था। देव- गुरु-शास्त्रको सान्निध्यमें रखकर टहेल मारनी।
... स्वभावपर्याय प्रगट होती है। उसमें जिज्ञासुको तो पुरुषार्थ पर लक्ष्य जाना चाहिये। क्योंकि पुरुषार्थ करना उसके हाथकी बात है। उसको खटक रहनी चाहिये। पुरुषार्थकी ओर उसका लक्ष्य जाना चाहिये। क्रमबद्ध आदिको वह गौण कर देता है। बाह्य कायामें क्रमबद्ध बराबर है, परन्तु अंतरमें स्वयं स्वभावकी ओर मुडनेमें क्रमबद्ध उसके ख्यालमें हो तो उसे खटक रहा करे कि मैं पुरुषार्थ कैसे करुँ? कैसे आगे बढूँ? अपनी ओर आता है।
गुरुदेव तो ऐसा ही कहते थे, बीचकी कोई बात ही नहीं। जो स्वभावको समझा और ज्ञायक हुआ उसे ही क्रमबद्ध है। दूसरोंको क्रमबद्ध है ही नहीं। बीचमें जिज्ञासा आदिकी कोई बात ही नहीं। जो स्वभाव प्रगट हुआ और ज्ञायककी ओर गया, उसे ही क्रमबद्ध (है)।