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परन्तु प्रथम वह सिद्ध भगवान जैसा है, ऐसा निर्णय करे-नक्की करे। मात्र विकल्पसे नक्की करे वह तो शुरूआतमें पहले बुद्धिसे नक्की करे। परन्तु अन्दर जो उसका स्वभाव है, उस स्वभावके मूलमें जाकर नक्की करे तो वह प्रगट होता है। आत्मा तो स्वभावसे भगवान जैसा ही है। भगवान ही है। भगवान जैसा ही उसका स्वभाव है। शक्तिसे है। भगवानने प्रगट हुआ और इसे शक्तिमें है। वैसे यह प्रयत्न करे तो वह प्रगट हो ऐसा है। उसमें जो स्वभाव हो वह उसमेंसे प्रगट होता है, नहीं हो वह कहाँसे प्रगट हो? उसके मूलमें है तो प्रगट होता है।
जैसे वृक्षका जैसा बीज है, उसके बीजमें है तो उसे पानीका सींचन करनेसे उसका वृक्ष पनपता है। वैसे उसके मूलमें-चैतन्यके मूल स्वभावमें ही है। स्वभावमेंसे स्वभाव आता है। विभावमेंसे-रागमेंसे वीतरागता नहीं आती, वीतराग स्वभाव है उसमेंसे प्रगट होती है। अतः उसके स्वभावका नाश नहीं हुआ है। अनन्त जन्म-मरण हुए, एक भवसे दूसरा भव, उसके परिणाम अनुसार होते रहते हैं। नर्क, स्वर्ग, तिर्यंच उसके विभावभावके कारण होते हैं। परन्तु स्वभावको पहचाने तो भवका नाश होता है। अनन्त कालसे उसने बाह्य क्रिया बहुत की, परन्तु शुभभाव किये, पुण्यबन्ध हुआ, देवलोकमें गया परन्तु आत्माको पहिचाना नहीं। शुभभावसे पुण्यबन्ध हुआ, देवलोकमें गया, परन्तु शुभ विकल्पसे भी आत्मा भिन्न है, उसका स्वभाव यदि पहिचाने, उसका भेदज्ञान करे, उसकी स्वानुभूति करे तो भवका अभाव होता है, तो आत्माका आनन्द प्रगट हो। शुभभाव बीचमें आये, परन्तु अपना निज स्वभाव तो विकल्प रहित निर्विकल्प स्वभाव है। पहले उसकी श्रद्धा हो, फिर उसमें लीनता करे तो प्रगट होता है।