Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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१४२अमृत वाणी (भाग-४)

परिणमता है। उसकी ज्ञायककी परिणति है। परन्तु उसे अस्थिरता (है वह) अन्दर तदगत एकत्वबुद्धिसे अस्थिरता नहीं है। अस्थिरता उसे अमुक पर्यायमें परिणमती है। सर्वांशसे पूरे द्रव्यमें अस्थिरता नहीं परिणमती। वैसे तो अनादिअनन्त द्रव्य स्वयं कहाँ पूरा अशुद्ध हो जाता। द्रव्यकी अमुक शुद्धता तो रहती है, उसे भान नहीं है। द्रव्य अपेक्षासे तो शुद्धता भरी है, परन्तु उसे भान नहीं है। इसलिये ज्ञान करे तो द्रव्य अपेक्षासे शुद्धता है और फिर प्रगट परिणति हुयी इसलिये दर्शनकी अपेक्षासे-दृष्टिकी अपेक्षासे शुद्धता है। परन्तु अमुक पर्यायोंमें उसे अशुद्धता रहती है। अमुक पर्यायमें अशुद्धता रहती है।

समाधानः- .. आत्माका स्वभाव तो भगवान ही है। आत्माने स्वयंने अनादिकालसे परिभ्रमण किया, परन्तु उसका स्वभाव जो है, उस स्वभावका नाश नहीं हुआ है। उसका स्वभाव जो अनन्त शक्तिसे भरा है, उसका केवलज्ञान, अनन्त ज्ञानसे भरा आत्मा, अनन्त आनन्द, अनन्त सुख, शान्ति सब आत्मामें अनन्त-अनन्त अपूर्व स्वभाव है, वह स्वभाव ऐसे ही भरे हैं। शक्तिमें है। भले प्रगटमें उसे वेदन नहीं है, वेदन उसे वर्तमान सुख- दुःखका और रागका वेदन होता है। परन्तु उसका जो स्वभाव मूलमें है, उस स्वभावका नाश नहीं हुआ है।

इसलिये गुरुदेव ऐसा कहते थे कि तू भगवान है, तू तुझे पहचान। उस ओर दृष्टि कर, उसे पहचान तो उसमेंसे प्रगट होगा। जैसे स्फटिक स्वभावसे निर्मल है, वैसे आत्माका स्वभाव तो निर्मल है। स्वफटिकमें लाल और पीले फूल रखनेसे उसमें लाल और काला प्रतिबिम्ब उठता है, परन्तु स्फटिकका मूल स्वभाव है वह चला नहीं जाता। वैसे आत्माका मूल तो, जैसे केवलज्ञानी सिद्ध भगवान हैं, वैसा उसका स्वभाव है। उसके स्वभावका नाश नहीं हुआ। जैसे पानी स्वभावसे निर्मल शीतल है, परन्तु कीचडसे मैला दिखता है। वैसे कर्मके कारण वह स्वयं उसमें जुडता है, उसके पुरुषार्थकी कमजोरीसे उसमें मलिनता दिखती है, परन्तु पानी तो निर्मल है। उसमें कोई औषधि डाले तो उसकी वह निर्मलता जैसी है वैसी प्रगट होती है।

वैसे आत्मा स्वयं स्वभावसे निर्मल है। पुरुषार्थ करे और भेदज्ञान करे कि ये मलिनता मेरा स्वभाव नहीं है, कर्म-ओरकी है। परन्तु पुरुषार्थकी कमजोरीसे होता है। लेकिन मैं तो ज्ञायक जाननेवाला आत्मा ही हूँ। ऐसा यदि स्वयंको पहचाने तो उसका स्वभाव प्रगट होता है। पहले तो उसका एक अंश प्रगट होता है, उसकी स्वानुभूति होती है। निर्विकल्प दशा आत्माका आनन्द प्रगट होता है। उसका भेदज्ञान करे और विकल्प टूटकर अंतरमें यदि जाय, उसमें तन्मय हो, उसका ज्ञान करे, उसमें लीनता करे तो उसका आनन्द प्रगट होता है, स्वानुभूति होती है। ऐसा करते-करते, बढते-बढते वह जैसा है वैसा केवलज्ञान स्वभाव प्रगट होता है।