१५७ द्रव्यदृष्टिके बलसे कहनेमें आता है। दो द्रव्यको भिन्न करके, भेदज्ञानकी अपेक्षासे कहनेमें आता है। बाकी अल्प सम्यग्दर्शन होनेके बाद अल्प अस्थिरता रहती है, वह यदि पुदगलकी हो तो फिर सम्यग्दर्शन होनेके बाद पुरुषार्थ करना बाकी नहीं रहता। सम्यग्दर्शन होनेके बाद भी पुरुषार्थ करना रहता है। उल्प अस्थिरता उसे रहती है तो उसे पुरुषार्थकी विशेष वृद्धि हो और चारित्रकी वृद्धि-स्वरूप रमणता बढती जाती है, स्वानुभूति बढती जाती है वह पुरुषार्थसे बढती है और अस्थिरता टूटती जाती है। वह पुरुषार्थसे होता है। और केवलज्ञान भी ऐसे होता है।
यदि सिर्फ पुदगलके ही हो तो फिर कुछ पुरुषार्थ ही नहीं करना रहता। सम्यग्दर्शन हुआ और सब पूरा हो गया। दृष्टि पूर्ण हो गयी तो उसके साथा चारित्र-लीनता भी पूर्ण हो जाय। तो उसे पुदगलके कहा जाय। परन्तु अभी जबतक पुरुषार्थ बाकी है, तबतक अस्थिरता है, अपनी मन्दताके कारण है। स्वभाव अपना नहीं है, परन्तु पुरुषार्थकी मन्दता है। पुरुषार्थकी गति बढे तो वह टूट जाता है। अपने स्वभावकी शुद्धि बढती जाय, ऐसे अस्थिरता कम होती जाती है। अस्थिरता ऐसे ही नहीं टलती, परन्तु अपनी शुद्धि अन्दर बढती है इसलिये अस्थिरता कम हो जाती है।
.. ऐसे ही विकल्प नहीं टूटते, परन्तु अपनी शुद्धि हो तो विकल्प स्वयं ही टूट जाते हैं। जैसे विकल्प हो वह टूट जाते हैं। अपनी अन्दरकी शुद्धि बढे तो। जैसे- जैसे भूमिका बढती जाय, ऐसे-ऐसे अस्थिरता कम होती जाती है। चतुर्थ गुणस्थानमें उसके अनुसार अस्थिरता होती है, फिर पाँचवी भूमिका हो, उसकी स्वानुभूतिकी अंतर परिणति, स्वरूप रमणता बढती जाय तो उस अनुसार अस्थिरता होती है। फिर छठ्ठवे- सातवें गुणस्थानमें एकदम उसकी निर्मलता हो, छठ्ठवे-सातवें गुणस्थानमें झुले उस अनुसार उसकी अस्थिरता एकदम कम हो जाती है। फिर उसे संज्वलनका जो एकदम मन्द कषाय है ऐसा ही रहता है। फिर उसमेंसे भी अधिक निर्मलता होती है इसलिये उसका क्षय होता है।
इसलिये वह जडके नहीं है। अपने पुरुषार्थकी गतिके साथ सम्बन्ध रखता है। जडका तो... उसे दो द्रव्य भिन्न पडते हैं। एक चैतन्यद्रव्य और विभाव। उसका निमित्त पुदगल है इसलिये उसे पुदगलके कहनेमें आता है। अपना स्वभाव नहीं है वह बराबर। उसकी द्रव्यदृष्टिमें, ज्ञाताधारामें वह मेरा नहीं है, मेरा नहीं है, ऐसे उसकी ज्ञायककी उग्रतामें वह मेरा नहीं है, ऐसे दृष्टिके बलमें उसे ऐसा ही आता है कि ये मेरा नहीं है। परन्तु अस्थिरतामें मेरी मन्दतासे होता है, वह उसे ज्ञानमें वर्तता है।
मुमुक्षुः- .. परिणमता है कि..?
समाधानः- पूरा आत्मा नहीं परिणमता। आत्मा तो द्रव्य अपेक्षासे तो शुद्धरूप