Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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१४०अमृत वाणी (भाग-४)

विकल्प और विचार आये तो उसका क्या करना? बहुत बार ऐसा होता है कि ऐसे विचार हमें करने हैं? ऐसे विचार हमें नहीं करने हैं। ऐसे विचार आये उसका क्या करना?

समाधानः- अपने पुरुषार्थकी मन्दता है, ऐसे लेना। उदय है, उसको ग्रहण करनेसे तो अपने पुरुषार्थकी मन्दता होती है। अपनी वर्तमान पुरुषार्थकी तो मन्दता है। उदयका कारण उसमें ले नहीं सकते। उदय तो निमित्तमात्र है। अपने पुरुषार्थकी मन्दतासे वह होता है। स्वयं उसे तोड नहीं सकता है, वह अपने पुरुषार्थकी मन्दता है। पूर्वका उदय उसे जबरजस्ती नहीं करता कि तू यह भाव कर ही कर। (ऐसा हो तो) स्वयं पराधीन हो जाय। वह उसे जबरजस्ती नहीं कहता है, परन्तु अपनी मन्दतासे वह होता है। अपनी मन्दताका वह कारण है। यदि वह जबरजस्ती करता हो तो स्वयं पराधीन हो जाय। उसकी जबरजस्ती नहीं होती। अपने पुरुषार्थकी मन्दता है।

अपने पुरुषार्थकी मन्दताकी ओरसे ले तो उसे टूटनेका अवकाश है। कर्म ओरसे लेनेसे उसे टूटनेका भी अवकाश नहीं है। इसलिये अपनी मन्दतासे वह होता है। निमित्त उदयका है, परन्तु स्वयंकी वर्तमान पुरुषार्थकी मन्दता है। वह जबरजस्तीसे उसे कहता नहीं है कि तू कर। स्वयं उसे तोड नहीं सकता इसलिये अपनी मन्दता है। ऐसा निर्णय किया कि यह भाव नहीं करने हैं, फिर भी आये तो उसमें अपनी मन्दता है, उसमें पूर्वका कारण नहीं है। उदय तो निमित्तमात्र होता है।

मुमुक्षुः- उसे पुदगलके परिणाम नहीं लेना चाहिये।

समाधानः- चैतन्यमेंं जो होते हैं, उसे पुदगलके परिणाम नहीं लेना। पुदगल तो निमित्तमात्र है। पुदगलके परिणाम कब लेना? कि द्रव्यदृष्टिके बलसे कि यह विभावस्वभाव भी मेरा नहीं है, वह पुदगलके निमित्तसे होते हैं, इसलिये पुदगलका है। इसलिये उसका अर्थ ऐसा नहीं है कि पुदगल उसे करवाता है। स्वयं जुडता है तब होते हैं। वह अपना स्वभाव नहीं है, चैतन्यका स्वभाव शुद्धतासे भरा है, उस अपेक्षासे, द्रव्यमें शुद्धता है उस अपेक्षासे उसे पुदगलके कहा जाता है। उसका अर्थ (ऐसा नहीं है कि) वह पुदगल करता है। अपने पुरुषार्थकी मन्दतासे होते हैं।

द्रव्यदृष्टिसे भेदज्ञानसे स्वयं भिन्न करे दो द्रव्यको, तब उसे पुदगलका कह सकते हैं। परन्तु उसे अल्प अस्थिरता ज्ञाताकी धारा सम्यग्दर्शनमें रहे तो वह अल्प अस्थिरता रहे तो भी वह पुरुषार्थकी मन्दतासे रहती है। अपने पुरुषार्थकी उग्रता होती है तब ही वह अस्थिरता जाती है। यदि वह जड हो तो उसे पुरुषार्थ करनेका, सम्यग्दर्शन होनेके बाद पुरुषार्थ करना ही नहीं रहता है, तो फिर उसे तुरन्त केवलज्ञान हो जाना चाहिये। उसे पुरुषार्थकी मन्दतासे अल्प अस्थिरता रहती है। उसे पुदगलका कहना वह