१५८ बढाये, उसकी रुचि बढाये, उसके विचार बढाये, उसका चिन्तवन बढाये तो वह रस, उसकी आकुलता कम हो। और तत्त्वका विचार बढाता जाय, उसका अभ्यास बढाता जाय तो फिर उसमें यथार्थ ज्ञान हो तो फिर उसे यथार्थ शान्ति आनेका प्रसंग बने। यथार्थ एकाग्रता करे तो। परन्तु पहले उसे सच्ची समझ बराबर होनी चाहिये। यथार्थ मार्गको जाने तो उसमें सच्ची एकाग्रता हो।
मुमुक्षुः- सच्चे ध्यानका स्वरूप क्या है?
समाधानः- सर्वप्रथम आत्माका अस्तित्व पहिचाने। ऐसी ही ये विकल्प तोड दूँ, ये विकल्प तोड दूँ, (ऐसा करे) लेकिन आत्मा क्या है, उसे पहिचाने बिना विकल्प तोडकर कहाँ जायेगा? विकल्प टूटेगा भी नहीं। विकल्प कम होंगे लेकिन टूटेंगे नहीं। परन्तु विकल्प रहित वस्तु क्या है? विकल्प रहित आत्मा ज्ञायक जाननेवाला ज्ञायक है, वह तत्त्व ही भिन्न है। पहले उसका अस्तित्व पहिचाने, उसका स्वभाव पहिचाने। ध्यान करके कहाँ खडा रहना? जो वस्तु है उसे ग्रहण करे कि य आत्माका स्वभाव और ये परका स्वभाव। इस प्रकार उसे बराबर ग्रहण करे, यथार्थ ज्ञान करके, तो ध्यान होता है। ऐसे ही समझे बिना ध्यान करे, विकल्प कम करुँ, क्म करुँ। आत्म पदार्थ कहाँ खडे रहना ये तो मालूम नहीं, कहाँ स्थिर रहना? विकल्प टूटे तो विकल्प कम हो, अथवा तो उसे शून्यता जैसे लगे।
ध्यान तो उसे कहें कि अन्दरसे कुछ जागृति आवे। अंतरमें आत्मामें उसे कोई अपूर्वता लगे। अपूर्व, कुछ अपूर्व लगे तो उसे ध्यान कहें। शून्यता आ जाय तो वह कोई ध्यान नहीं है। अंतरमें वस्तुको ग्रहण करके ध्यान होना चाहिये। नहीं तो ध्यान तो.. उसमें आता है न? ध्यान तरंगरूप होता है। यथार्थ ज्ञान बिनाका ध्यान तरंगरूप होता है।
मुमुक्षुः- श्रीमदमें।
समाधानः- श्रीमदमें आता है।
मुमुक्षुः- ... भूल नये प्रकारकी होगी कि जिस कारण जीव सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं कर सका?
समाधानः- भूल तो अनेक जातकी (है)। परको अपना माना वह उसकी भूल है। अनेक जातकी। कहीं न कहीं जीव अटका है। कहीं थोडा कुछ किया और अटक गया कि मैंने बहुत किया। थोडा ज्ञान करके अटक गया, थोडी क्रिया करके अटक गया, थोडा शुभभाव किया तो मैं तो बहुत धर्म करता हूँ, ऐसे अटक गया। थोडा वैराग्य करके अटक गया, कुछ त्याग किया तो, मैंने बहुत त्याग किया, मैंने बहुत धर्म किया, ऐसा करके अटक गया। कहीं-कहीं अटक गया। थोडे शास्त्र धोख लिये