Bruhad Dravya Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 35 : Ashuchi Anupreksha.

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रीते ‘अन्यत्वअनुप्रेक्षा’ समाप्त थई. ५.
हवे पछी, अशुचिअनुप्रेक्षा कहेवामां आवे छे. ते आ रीतेसर्व प्रकारे
अशुचि (अपवित्र) वीर्य अने रजथी उत्पन्न थवाने कारणे, तेमज ‘‘वसासृग्मांसमेदोऽस्थि-
मज्जाशुक्राणि धातवः (वसा, रुधिर, मांस, मेद, हाडकां, मज्जा अने शुक्रए धातुओ
छे)’’ एमां कहेली अशुचि सात धातुमय होवाथी तथा नाक आदि नव छिद्रद्वार
होवाथी स्वरूपथी पण अशुचि होवाने कारणे, तथा मूत्र, विष्टा आदि अशुचि मळोनी
उत्पत्तिनुं स्थान होवाने कारणे आ देह अशुचि छे. मात्र ते अशुचिनुं कारण होवाथी
ज अशुचि नथी, पण स्वरूपथी अशुचिने उत्पन्न करनार होवाथी ते अशुचि छे; शुचि
(पवित्र) एवां सुगंधी माळा, वस्त्र वगेरेमां अशुचिपणुं उत्पन्न करतो होवाथी पण देह
अशुचि छे.
हवे, शुचित्वनुं (पवित्रतानुं) कथन करवामां आवे छेःसहज शुद्ध केवळज्ञानादि
गुणोनो आधारभूत होवाथी अने पोते ज निश्चयथी शुचिरूप होवाथी परमात्मा ज शुचि
छे.
‘जीवो ब्रह्मा जीवह्नि चेव चरिया हविज्ज जो जदिणो तं जाण बह्मचेरं विमुक्कपरदेह भत्तीए ।।
(जीव ब्रह्म छे, जीवमां ज मुनिनी जे चर्या होय छे तेने पर एवा देहनी सेवा रहित
ब्रह्मचर्य जाणो.)’
ए गाथामां कहेल निर्मळ ब्रह्मचर्य, ते निज परमात्मामां स्थित
अतः परं अशुचित्वानुप्रेक्षा कथ्यते तद्यथासर्वाशुचिशुक्रशोणितकारणोत्पन्नत्वात्तथैव
‘‘वसासृग्मांसमेदोऽस्थिमज्जाशुक्राणि धातवः’’ इत्युक्ताशुचिसप्तधातुमयत्वेन तथा
नासिकादिनवरन्ध्रद्वारैरपि स्वरूपेणाशुचित्वात्तथैव मूत्रपुरीषाद्यशुचिमलानामुत्पत्तिस्थानत्वाच्चा-
शुचिरयं देहः
न केवलमशुचिकारणत्वेनाशुचिः स्वरूपेणाशुच्युत्पादकत्वेन चाशुचिः, शुचि
सुगन्धमाल्यवस्त्रादीनामशुचित्वोत्पादकत्वाच्चाशुचिः इदानीं शुचित्वं कथ्यते
सहजशुद्धकेवलज्ञानादिगुणानामाधारभूतत्वात्स्वयं निश्चयेन शुचिरूपत्वाच्च परमात्मैव शुचिः
‘‘जीवो बह्मा जीवह्नि चेव चरिया हविज्ज जो जदिणो तं जाण बह्मचेरं
विमुक्कपरदेहभत्तीए ’’ इति गाथाकथितनिर्मलब्रह्मचर्यं तत्रैव निजपरमात्मनि स्थितानामेव
१. आत्मा अने परपदार्थो परस्पर भिन्न अने अन्य होवाथी दरेकना छए कारको परस्पर सर्वथा भिन्न
छे, तेनो अर्थ ए थयो केकोई परनुं कांई करी शकतुं नथी. जुओ, गाथा ८ नी टीका पा. २७
माटे सर्व प्रकारे उपादेयभूत निज त्रिकाळ परमात्मपदार्थ सन्मुख थई आत्मामां एकत्वरूपे परिणमवुं
ते एकत्वभावना छे. ते शुद्ध परिणमनमां अन्य
भिन्न पदार्थो (जेमां निमित्त पण समाविष्ट छे)नो
निषेधहेयपणुं आवी जाय छे, ते हेयपणाने अन्यत्व भावना कहे छे.
सप्ततत्त्व-नवपदार्थ अधिकार [ १२५