Bruhad Dravya Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 35 : Anyatva Anupreksha.

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पछी परंपराए मोक्षनी प्राप्ति करावे छे. कह्युं छे केः‘तप करवाथी स्वर्ग सौ कोई
मेळवे छे, परंतु ध्यानना योगथी जे स्वर्ग पामे छे ते आगामी भवमां अक्षय सुख पामे
छे.’ आ रीते एकत्वभावनानुं फळ जाणीने निरंतर निज शुद्धात्माना एकत्वनी भावना
करवी.
आम, ‘एकत्वअनुप्रेक्षा’ पूर्ण थई. ४.
हवे, अन्यत्वअनुप्रेक्षा कहे छे. ते आ प्रमाणेपूर्वोक्त देह, सगांओ,
सुवर्णादि अर्थ अने इन्द्रियसुखादि कर्मोने आधीन होवाथी, विनश्वर तेम ज हेय पण
छे. ते बधां, जे टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक स्वभावपणाने लीधे नित्य अने सर्व प्रकारे
उपादेयभूत छे एवा, निर्विकार परमचैतन्यरूप चित्चमत्कारस्वभाववाळा निज
परमात्मपदार्थथी निश्चयनये अन्य
भिन्न छे, आत्मा पण तेमनाथी अन्यभिन्न छे.
अहीं, भाव (आशय) एम छे केएकत्वअनुप्रेक्षामां ‘‘हुं एक छुं’’ इत्यादि प्रकारे
विधिरूप व्याख्यान छे अने अन्यत्वअनुप्रेक्षामां ‘देहादि पदार्थो माराथी भिन्न छे,
मारा नथी’एम निषेधरूपे व्याख्यान छे. ए रीते एकत्व अने अन्यत्व ए बन्ने
अनुप्रेक्षाओमां विधि अने निषेधरूप ज अंतर छे; बन्नेनुं तात्पर्य एक ज छे.
मोक्षं प्रापयतीत्यर्थः तथा चोक्तम्‘‘सग्गं तवेण सव्वो, वि पावए तहि वि झाणजोयेण
जो पावइ सो पावइ, परलोए सासयं सोक्खं ’’ एवमेकत्वभावनाफलं ज्ञात्वा निरन्तरं
निजशुद्धात्मैकत्वभावना कर्तव्या इत्येकत्वानुप्रेक्षा गता ।।।।
अथान्यत्वानुप्रेक्षां कथयति तथा हिपूर्वोक्तानि यानि देहबन्धुजन-
सुवर्णाद्यर्थेन्द्रियसुखादीनि कर्माधीनत्वे विनश्वराणि तथैव हेयभूतानि च, तानि सर्वाणि
टङ्कोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावत्वेन नित्यात्सर्वप्रकारोपादेयभूतान्निर्विकारपरमचैतन्यचिच्चमत्कार-
स्वभावान्निजपरमात्मपदार्थान्निश्चयनयेनान्यानि भिन्नानि
तेभ्यः पुनरात्माप्यन्यो भिन्न इति
अयमत्र भावःएकत्वानुप्रेक्षायामेकोऽहमित्यादिविधिरूपेण व्याख्यानं, अन्यत्वानुप्रेक्षायां तु
देहादयो मत्सकाशादन्ये, मदीया न भवन्तीति निषेधरूपेण इत्येकत्वान्यत्वानुप्रेक्षायां
विधिनिषेधरूप एव विशेषस्तात्पर्यं तदेव इत्यन्यत्वानुप्रेक्षा समाप्ता ।।।।
१. मोक्षपाहुड गाथा. २३.
२. परपदार्थो आत्माथी अन्य छे
भिन्न छे अने आश्रय करवा योग्य नथी. परपदार्थोमां निमित्त पण
आवी जाय छे, तेमनी सन्मुखताथी रागद्वेष उत्पन्न थाय छे, माटे ते हेय छे अर्थात् आत्मसन्मुखता
वडे तेमनी सन्मुखता (तेमनो आश्रय) छोडवा योग्य छे. सर्व प्रकारे उपादेयभूत एवा निज परमात्म-
पदार्थनो आश्रय थतां पर पदार्थनो आश्रय छूटी जाय छे एटले के, तेओ हेयरूप थई जाय छे.
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