Bruhad Dravya Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration).

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लक्षण छे; एवी एकत्वभावनारूपे परिणमेला आ जीवने निश्चयनयथी(१)
सहजानंदसुखादि अनंतगुणना आधारभूत केवळज्ञान ज एक सहज शरीर छे; शरीर
एटले शुं? स्वरूप; सात धातुमय औदारिक शरीर नहि; (२) तेवी ज रीते आर्त अने
रौद्ररूप दुर्ध्यानथी विलक्षण परमसामायिक जेनुं लक्षण (स्वरूप) छे; एवी एकत्वभावनारूपे
परिणमेल निजात्मतत्त्व ज एक सदा शाश्वत, परम हितकारी, परमबंधु छे, विनश्वर अने
अहितकारी पुत्र, स्त्री आदि नहि; (३) ते ज रीते परम
उपेक्षासंयम जेनुं लक्षण छे;
एवी एकत्वभावना सहित स्वशुद्धात्मपदार्थ एक ज अविनाशी अने हितकारी परम अर्थ
छे, सुवर्ण आदि अर्थ नहि. (४) तेवी ज रीते निर्विकल्प समाधिथी उत्पन्न थतो निर्विकार
परमानंद जेनुं लक्षण छे, एवा अनाकुळपणारूप स्वभाववाळुं आत्मसुख ज एक सुख छे,
आकुळतानुं उत्पादक इन्द्रियसुख नहि.
शंकाःआ (१) शरीर, (२) सगांओ, (३) सुवर्णादि अर्थ अने (४) इन्द्रिय-
सुख वगेरे जीवनां निश्चयथी नथी, एम केम कह्युं? समाधानःकारण के मरण वखते
जीव एकलो ज बीजी गतिमां जाय छे, शरीर वगेरे जीवनी साथे जतां नथी. तथा ज्यारे
जीव रोगथी घेराई जाय छे, त्यारे विषय
कषायादि दुर्ध्यानथी रहित निज शुद्धात्मा ज
सहायक थाय छे. शंकाःते केवी रीते सहायक थाय छे? उत्तरःजो जीवनुं आ
छेल्लुं शरीर होय, तो केवळज्ञानादिनी प्रगटतारूप मोक्षमां लई जाय छे अने जो छेल्लुं
शरीर न होय, तो ते संसारनी स्थिति घटाडीने देवेन्द्रादि संबंधी पुण्यनुं सुख आपीने
जीवस्य निश्चयनयेन सहजानन्दसुखाद्यनन्तगुणाधारभूतं केवलज्ञानमेवैकं सहजं शरीरम् शरीरं
कोऽर्थः ? स्वरूपं, न च सप्तधातुमयौदारिकशरीरम् तथैवार्त्तरौद्रदुर्ध्यानविलक्षणपरमसामायिक-
लक्षणैकत्वभावनापरिणतं निजात्मतत्त्वमेवैकं सदा शाश्वतं परमहितकारी परमोबन्धु, न च
विनश्वराहितकारी पुत्रकलत्रादि
तेनैव प्रकारेण परमोपेक्षासंयमलक्षणैकत्वभावनासहितः
स्वशुद्धात्मपदार्थ एक एवाविनश्वरहितकारी परमोऽर्थः, न च सुवर्णाद्यर्थः तथैव
निर्विकल्पसमाधिसमुत्पन्ननिर्विकारपरमानन्दैकलक्षणानाकुलत्वस्वभावात्मसुखमेवैकं सुख न
चाकुलत्वोत्पादकेन्द्रियसुखमिति
कस्मादिदं देहबन्धुजनसुवर्णाद्यर्थेन्द्रियसुखादिकं जीवस्य
निश्चयेन निराकृतमिति चेत् ? यतो मरणकाले जीव एक एव गत्यन्तरं गच्छति, न च
देहादीनि
तथैव रोगव्याप्तिकाले विषयकषायादिदुर्ध्यानरहितः स्वशुद्धात्मैकसहायो भवति
तदपि कथमिति चेत् ? यदि चरमदेहो भवति तर्हि केवलज्ञानादिव्यक्तिरूपं मोक्षं नयति,
अचरमदेहस्य तु संसारस्थितिं स्तोकां कृत्वा देवेन्द्राद्यभ्युदयसुखं दत्वा च पश्चात् पारम्पर्येण
सप्ततत्त्व-नवपदार्थ अधिकार [ १२३