Bruhad Dravya Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 13 : Shravakani Agiyar Pratimao.

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मानमायालोभमान्यतरोदयेन प्रथमौपशमिकसम्यक्त्वात्पतितो मिथ्यात्वं नाद्यापि
गच्छतीत्यन्तरालवर्त्ती सासादनः
निजशुद्धात्मादितत्त्वं वीतरागसर्वज्ञप्रणीतं परप्रणीतं च मन्यते
यः स दर्शनमोहनीयभेदमिश्रकर्मोदयेन दधिगुडमिश्रभाववत् मिश्रगुणस्थानवर्त्ती भवति अथ
मतंयेन केनाप्येकेन मम देवेन प्रयोजनं तथा सर्वे देवा वन्दनीया न च निन्दनीया इत्यादि-
वैनयिकमिथ्यादृष्टिः संशयमिथ्यादृष्टिर्वा तथा मन्यते तेन सह सम्यग्मिथ्यादृष्टेः को विशेष
इति ? अत्र परिहारः
‘‘स सर्वदेवेषु सर्वसमयेषु च भक्तिपरिणामेन येन केनाप्येकेन मम
उदयवडे प्रथम - उपशमसम्यक्त्वथी पडीने ज्यां सुधी मिथ्यात्वने प्राप्त न थाय त्यां सुधी
सम्यक्त्व अने मिथ्यात्व ए बंनेनी वच्चेना परिणामवाळो जीव ‘सासादन’ छे. २.
निजशुद्धात्मादि वीतरागसर्वज्ञप्रणीत तत्त्वोने अने परप्रणीत तत्त्वोने पण जे माने छे ते
मिश्रदर्शनमोहनीयकर्मना उदयथी दहीं अने गोळना मिश्रणवाळा पदार्थोनी जेम
‘मिश्रगुणस्थान’वाळो जीव छे. ३.
अहीं शंका‘जे कोई पण (गमे ते हो) एक देवथी मारे तो प्रयोजन छे’ तथा
‘बधा ज देव वंदनीय छे, निन्दा कोई पण देवनी न करवी जोईए’ इत्यादि वैनयिक
मिथ्याद्रष्टि अथवा संशय मिथ्याद्रष्टि माने छे, तो तेनामां अने सम्यग्मिथ्याद्रष्टिमां शो
तफावत छे? तेनो उत्तर
ते तो सर्व देवो प्रत्ये अने सर्व शास्त्रो प्रत्ये भक्तिना परिणाम
करवाने लीधे कोई पण एकथी मने पुण्य थशेएम मानीने संशयरूपे भक्ति करे छे, तेने
कोई एक देवमां निश्चय नथी अने मिश्रगुणस्थानवर्ती जीवने तो बन्नेमां निश्चय छे;
ए तफावत छे.
‘‘स्वाभाविक अनंतज्ञानादि अनंत गुणना आधारभूत निजपरमात्मद्रव्य उपादेय छे
अने इन्द्रियसुखादि परद्रव्य हेय छे’’ एम अर्हत्सर्वज्ञप्रणीत निश्चयव्यवहारनयरूप
१. अविरत सम्यग्द्रष्टि जीव ‘निज परमात्मद्रव्य उपादेय छे अने इन्द्रियसुखादि परद्रव्य हेय छे’ एम
अंतरंगमां आंशिक शुद्ध परिणतिए परिणमीने निरंतर माने छे (एटले के निश्चयरूप साध्यभावेशुद्ध
सम्यग्दर्शनभावेपरिणमीने निरंतर माने छे); वळी ते बहारमांविकल्पमां नवतत्त्वश्रद्धानादिभावे
परिणमीने पण एम माने छे (एटले के व्यवहाररूप साधकभावथीनवतत्त्वश्रद्धानादिरूप
विकल्पभावथीपण एम माने छे). निश्चयव्यवहारनो आवो सुमेळ होय छे. आथी आम तात्पर्य
ग्रहवुंःकोई जीव एम कहे के ‘हुं अंतरंग शुद्धपरिणतिथी तो निजद्रव्यनी उपादेयता ने परद्रव्यनी
हेयता मानुं छुं, पण मने विकल्पमां नवतत्त्वश्रद्धानादिथी विरुद्धभावो छे,’ तो ते वात बराबर नथी
अने ते जीव सम्यग्द्रष्टि नथी ज. वळी कोई जीव एम कहे के ‘हुं नवतत्त्वश्रद्धानादिरूप विकल्पभावमां
तो निजद्रव्यनी उपादेयता ने परद्रव्यनी हेयता बराबर मानुं छुं, पण मने अंतरंग शुद्ध परिणमन
नथी,’ तो ते जीव पण सम्यग्द्रष्टि नथी.
षड्द्रव्य-पंचास्तिकाय अधिकार [ ३९