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वैशाख सुद ३ (अक्षय त्रीज)ना रोज ग्रंथकारे तेनी रचना पूरी
करी हती. आ ग्रंथमां धर्मनुं स्वरूप टूंकामां सारी रीते बताववामां
आव्युं छे, अने ते बाळकथी मांडी वृद्ध सुधी सर्वे जीवो तरत
समजी शके तेवी सरळ भाषामां आपवामां आव्युं छे.
नीचे मुजब छेः
भूल छे एटले के जीवने ते अजीव माने छे.
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ते मानतो नथी
छे
भूल छे.
भोगवटो छे; एटले के चारे गतिओमां
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अवस्था टाळी बेइन्द्रियथी पंचेन्द्रिय भाग्ये ज थाय छे; अने
तेमां पण मनुष्यपणुं प्राप्त करवुं तो अति
दुःख टाळी शके. परंतु मनुष्यभवमां पण कां तो धर्मनो यथार्थ
विचार करतो नथी, अगर तो धर्मने नामे चालती अनेक
मिथ्या मान्यताओमांथी कोई ने कोई खोटी मान्यताने ग्रहण
करे छे अने कुदेव, कुगुरु तथा कुशास्त्रमां ते फसाई जाय
छे; अथवा तो ‘बधा धर्मो एक छे’ एम उपलक द्रष्टिए
मानी लईने बधानो समन्वय करवा लागे छे अने पोतानी
ए भ्रमणावाळी बुद्धिने, विशाळबुद्धि मानीने अभिमान सेवे
छे; कदी ते जीव सुदेव, सुगुरु अने सुशास्त्रनुं बाह्य स्वरूप
समजे तोपण पोतानुं खरुं स्वरूप समजवा जीव यथार्थ प्रयास
करतो नथी; तेथी ते फरी फरीने संसारचक्रमां रखडी पोतानो
मोटामां मोटो काळ निगोद
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लाभ थाय, परथी मने नुकशान थाय
महापापने शास्त्रीय परिभाषामां मिथ्यादर्शन कहेवामां आवे छे.
तेना फळ तरीके क्रोध, मान, माया, लोभ जे परिमित पाप छे
तेने तीव्र के मंदपणे सेवे छे. जीवो क्रोधादिकने पाप गणे छे,
पण तेनुं मूळियुं मिथ्यादर्शनरूप महापाप छे तेने तेओ
ओळखता नथी, तो पछी तेने टाळे क्यांथी?
प्रथम समजवानी खास जरूर छे.
करतां मिथ्यात्व ते महापाप छे, तेथी तेने प्रथम छोडाववानो
जैनधर्मनो उपदेश छे; छतां उपदेशको, प्रचारको अने
अग्रेसरोनो मोटो भाग मिथ्यात्वना यथार्थ स्वरूपथी अजाण छे;
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क्यांथी आपी शके? तेओ ‘पुण्य’ने धर्ममां सहायक मानी तेना
उपदेशनी मुख्यता करे छे; ए प्रमाणे धर्मने नामे महा
मिथ्यात्वरूपी पापने अव्यकत रीते पोषे छे. आ भूल जीव टाळी
शके ते माटे सम्यग्दर्शन अने मिथ्यादर्शन तथा सम्यग्ज्ञान अने
मिथ्याज्ञाननुं स्वरूप आ ग्रंथनी त्रीजी अने चोथी ढाळमां आपेल
छे. आनो अर्थ एवो नथी के शुभने बदले अशुभभाव जीवे
करवा; पण शुभ भावने धर्म के धर्ममां सहायक मानवो नहीं,
नीचली अवस्थामां शुभ भाव थया विना रहे नहीं, पण तेने
धर्म मानवो ते मिथ्यात्वरूप महापाप छे.
भाव थाय छे तेने ते धर्म मानता नथी पण बंधनुं कारण माने
छे, जेटलो राग टळे छे तथा सम्यग्दर्शन
छे तेथी तेमने आ खरी भावना होती नथी.
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नहि त्यारे तेने शुभभावरूप अणुव्रत के महाव्रत होय छे,
पण तेमां थता शुभ भावने ते धर्म मानता नथी; ते वगेरेनुं
स्वरूप छठ्ठी ढाळमां कह्युं छे.
‘निश्चय’ कहेवामां आवे छे, आत्मानो ते त्रिकाळी सामान्य
स्वभाव द्रव्यार्थिकनये आत्मानुं स्वरूप छे, त्रिकाळी शुद्धता
तरफना वलणथी जीवनो जे शुद्ध पर्याय प्रगटे छे ते शुद्ध
पर्यायने ‘व्यवहार’ कहेवामां आवे छे, ते सद्भूत व्यवहार
छे. अने अवस्थामां जे विकार के रागनो अंश रहे छे ते
पर्याय जीवनो असद्भूत व्यवहार छे; असद्भूत व्यवहार
जीवनुं परमार्थ स्वरूप नहि होवाथी टळी शके छे, अने तेथी
निश्चयनये ते जीवनुं स्वरूप नथी एम समजवुं.
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माने छे तथा ते करतां करतां भविष्यमां निश्चय (शुद्धभाव
होय छे. कोई वखते निश्चय (शुद्ध भाव) मुख्यपणे होय छे
कोई वखते व्यवहार (शुभभाव) मुख्यपणे होय छे. आनो
अर्थ एवो छे के सम्यग्द्रष्टि जीव पोताना स्वरूपमां स्थिर रहे
तेनुं नाम निश्चयपर्याय (शुद्धता) छे, अने तेमां स्थिर रही
शके नहि त्यारे स्वलक्षे अशुभभाव टाळी शुभमां रहे अने
ते शुभने धर्म माने नहीं, तेने व्यवहारपर्याय (शुभपर्याय)
कहेवामां आवे छे; केमके ते जीवने शुभपर्याय थोडा वखतमां
टळी शुद्धपर्याय प्रगटे छे; आ अपेक्षा लक्षमां राखी व्यवहार
साधक अने निश्चय साध्य
क्रमे क्रमे शुद्ध पर्याय थतो जाय. आ बन्ने पर्यायो होवाथी
ते पर्यायार्थिकनयनो विषय छे. आ ग्रंथमां केटलेक ठेकाणे
निश्चय अने व्यवहार एवा शब्दो वापरवामां आव्या छे, त्यां
तेनो आ अर्थ समजवो. व्यवहार (शुभभाव)नो व्यय ते
साधक अने निश्चय (शुद्धभाव)नो उत्पाद ते साध्य एवो तेनो
अर्थ थाय छे; तेने टूंकामा ‘व्यवहार साधक, निश्चय साध्य’
एम पर्यायार्थिकनये कहेवामां आवे छे.
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मिथ्याद्रष्टिनुं बीजुं नाम छे, केम के बहारना संयोग
सम्यग्द्रष्टिनुं बीजुं नाम छे; केमके पोताना अंतरथी ज एटले
के मारा त्रिकाळी शुद्ध चैतन्यस्वरूपना लक्षे ज मने लाभ थई
शके एम ते माने छे. परमात्मा ते आत्मानी संपूर्ण शुद्ध
अवस्था छे. आ सिवाय बीजा अनेक विषयो आ ग्रंथमां
लेवामां आव्या छे; ते बधा काळजीपूर्वक समजवानी जरूर छे.
कारण छे; आ उपरांत शास्त्राभ्यासमां नीचेनी बाबतो खास
ख्यालमां राखवीः
२. सम्यग्दर्शन पाम्या सिवाय कोई पण जीवने साचां
केमके ते क्रिया प्रथम पांचमे गुणस्थाने शुभभावरूपे होय छे.
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बुद्धिमां ते हेय होवाथी तेनाथी कदी धर्म न थाय एम ते
माने छे.
उपकार करी शके नहीं, मारी
पोकारी
थाय छे, तथा ते श्रद्धान द्रव्यानुयोगनो अभ्यास करतां थाय छे;
माटे पहेलां द्रव्यानुयोग अनुसार श्रद्धान करी सम्यग्द्रष्टि थवुं.
शुभ भावो होय छे; परंतु पहेले गुणस्थाने साचां व्रत, तप
वगेरे होतां नथी.
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प्रतिक्रमणादि क्रिया करे छे ते छोडी देशे.
तो तेने साचां व्रतादि होतां ज नथी तेथी ते छोडवानो प्रश्न
ज नथी. जो व्रत करनार ज्ञानी हशे तो छद्मस्थ दशामां ते व्रत
छोडी अशुभमां जशे तेम मानवुं न्यायविरुद्ध छे. परंतु एम बने
के ते क्रमे क्रमे शुभभावने टाळी शुद्धने वधारे. पण ते तो लाभनुं
कारण छे, नुकसाननुं कारण नथी. माटे सत्य कथनथी कोईने
नुकसान थाय नहि. आ कथननुं मनन करवानी खास जरूर छे.
शुद्धि
सोनगढ (सौराष्ट्र)
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आगळनी आवृत्तिमां जे मुद्रण-अशुद्धिओ हती ते ब्र. श्री चंदुभाई
झोबाळियानां मार्गदर्शन नीचे आ आवृत्ति मुद्रित करवामां आवी
छे.
माने छे.
वि. सं. २०५८
इ. स. २००२
नीचली दशावाळाओने तो व्रत
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श्रद्धान थतां थाय छे तथा ते श्रद्धान द्रव्यानुयोगनो अभ्यास
करतां थाय छे; माटे पहेलां द्रव्यानुयोग अनुसार श्रद्धान करी
सम्यग्द्रष्टि थाय अने त्यारपछी चरणानुयोग अनुसार व्रतादिक
धारण करी व्रती थाय. ए प्रमाणे मुख्यपणे तो नीचली दशामां
ज द्रव्यानुयोग कार्यकारी छे, तथा गौणपणे जेने मोक्षमार्गनी
प्राप्ति थती न जणाय तेने, पहेलां कोई व्रतादिकनो उपदेश
आपवामां आवे छे. माटे उच्च दशावाळाओने अध्यात्म-
उपदेश करवा योग्य छे एम जाणी नीचली दशावाळाओए
पराङ्मुख थवुं योग्य नथी.
कोई ठेकाणे व्यवहारनयनी मुख्यता सहित व्याख्यान छे तेने
‘‘एम नथी पण निमित्तादिनी अपेक्षाए उपचार कर्यो छे’’
एम जाणवुं; अने ए प्रमाणे जाणवानुं नाम ज बन्ने नयोनुं
ग्रहण छे. पण बन्ने नयोनां व्याख्यानने समान सत्यार्थ जाणी
‘‘आ प्रमाणे पण छे तथा आ प्रमाणे पण छे’’ एवा भ्रमरूप
प्रवर्तवाथी तो बन्ने नयो ग्रहण करवा कह्या नथी.
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अंतर-प्रदर्शन अने प्रश्नावली ...
जीवतत्त्वनी भूल ...
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मिथ्याज्ञान ...
लागवानो उपदेश ...
अंतर-प्रदर्शन अने प्रश्नावली ...
अजीव
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सम्यक्त्वना २५ दोष तथा ८ गुणोनुं वर्णन ...
अंतर-प्रदर्शन अने प्रश्नावली ...
इच्छा रोकवानो उपाय ...
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अने सत्य-अणुव्रत ...
अंतर-प्रदर्शन अने प्रश्नावली ....
तेनुं फळ...
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